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वेद में स्पष्ट रूप से लिखी हुई है कि - धाता यथा पूर्वमकल्पयत्' अर्थात् विधाता • ब्रह्मा पूर्व में जैसी सृष्टि थी वैसी ही बनाता है । नवीन सुधार वृध्धि जैसा कुछ
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भी नहीं करता है - तब जो पूर्व में सृष्टि थी उसमें क्या बुराई थी कि महा प्रलय करना पड़ा ? पुनः नवीन सृष्टि का सर्जन करने की इच्छा से महाप्रलय किया ? इसका उत्तर क्या है ? इसके उत्तर में मात्र 'ईश्वर की इच्छा' ऐसे शब्द कहकर बुद्धि के द्वार ही बंदकर दिये गए हैं। यह उत्तर तो सर्वत्र प्रयुक्त होने वाला अंतिम ब्रह्मास्त्र तुल्य है । बस 'ईश्वर की इच्छा' इस उत्तर के आगे किसी का कुछ भी बस नहीं चलता । बार बार सृष्टि बनाना और बार बार महाप्रलय नष्ट करना उसका संहार करना - ऐसी उल्टी गंगा प्रवाहित करने का प्रयत्न करने की अपेक्षा तो सम्पूर्ण सृष्टि को जैनों की तरह अनादि अनंत ही मान लेने में अधिक बुद्धिमत्ता हैं । ऐसा करने से ईश्वर पर लगने वाले मिथ्यारोपों का भी निवारण हो जाएगा और ईश्वर का स्वरुप भी स्वच्छ, स्पष्ट और शुद्ध हो जाएगा । चारों और से एक. नहीं बल्कि अनेक लाभ हैं । तब फिर ईश्वरेच्छा को हम क्यों कारण मानें ? परन्तु यह तर्क स्वीकार करें तो ईश्वर का कर्तव्य सृष्टि कर्तव्यपन मिट जाता है - इसका क्या किया जाए ? गधा भले ही लात मारता रहे परन्तु गधे की पूँछ जो पकड़ रखी है, उसे छोड़ने की बात न करना, कहाँ तक न्यायसंगत है ? कितने दोषों से भरी हुई यह नीति है ?
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इच्छा का धर : मन या शरीर ?
इच्छा की उत्पति कहाँ से होती है । मन में से या शरीर में से ? सम्पूर्ण जगत स्पष्टरूप से जानता हैं कि इच्छा की उत्पत्ति मन में से होती है - शरीर में से नहीं । शरीर और मन दोनों भिन्न भिन्न तत्त्व हैं । मन में से उत्पन्न होने वाली इच्छा विचारात्मक है या नहीं ? क्यों कि मन में तो विचार - तरंगो की उत्पत्ति होती है, अतः मन विचारों का केन्द्र है । अब जब मन की सत्ता सिद्ध हो जाती है तो इस मन का स्वरूप कैसा है ? मन स्थूल है या सूक्ष्म ? ग्राह्य है अथवा अग्राह्य ? दृश्य है अथवा अदृश्य ? स्पष्ट है अथवा अस्पष्ट ? और सूक्ष्म मन इच्छा का जनक है तो वह मन शरीर में रहता है कि बिना शरीर से भी ? यदि बिना शरीर का मन रहता हो तो अशरीरी अवस्था तो मुक्तावस्था कहलाती है । अशरीरी आत्मा को ही मुक्त कहते हैं । अब वह आत्मा कहाँ से मन रखेगी ? रख नहीं सकती । अतः मन तो संज्ञी पंचेन्द्रिय प्राणिओं को ही प्राप्त होता है । उसी
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