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है । सृष्टि के सभी जीव प्रलय के समय एकत्रित होकर अनुनय-विनय करे कि हे भगवन ! आप तो हमारे जन्मदाता हैं, आपने ही हमें बनाया है तो अब हमें सुखपूर्वक जीने दो । हमें मारकर क्यों प्रलय मचा रहे हो ? इस प्रकार गिड़गिड़ाकर विनम्र निवेदन करे, क्योंकि एक बात तो स्पष्ट दीपकवत् है कि 'सव्वे जीवावी इच्छन्त' जीविउं न मरिज्जिउं । सभी प्राणी जीना चाहते हैं, कोई मरना नहीं चाहता, क्यों कि जीने में सुख है, जब कि मरने में दुःख है । प्राणीमात्र का यह सहज स्वभाव है कि सुख की इच्छा करना, दुःख की इच्छा कोई नहीं करता है । जीने में सुख है अतः सभी जीना चाहते हैं । एक छोटी सी चींटी अथवा छोटे से छोटा कीटाणु भी मरने की इच्छा नहीं रखता है तो अन्य की तो बात ही कहाँ ?
अब जहाँ एक ओर सृष्टि के सभी जीव जीवित रहने के इच्छुक हैं वहाँ दूसरी ओर एक मात्र ईश्वर ही प्रलयकाल में सब को मारने का इच्छुक है - ऐसा क्यों ? क्या यही मातृवत् भाव रखने वाला - मातृतुल्य ईश्वर ही जीवों का प्रलय करेगा ? और यदि वह ऐसा करता है तो क्या उसे हम ईश्वर कहें ? क्या माता ही स्वजनित बालक की हत्या करेगी ? उसे खा जाएगी ? क्या यह संभव है ? और यदि खाती है तो क्या वह माता कहलाने की अधिकारिणी है ? अथवा उसे नरपिशाचिनी नरभक्षी राक्षसी कहेंगे ? क्या समझा जाए ? संहार लीला में सृष्टि का प्रलय करने वाले ईश्वर को मातृवत् समझे कि नरभक्षी राक्षस कहें ? उसे किस नाम से जानें इसका आप स्वंय निर्णय करें ।
निर्मित वस्तु को बिगाड़कर पुन : निर्माण करना क्या मूर्खता भरा कार्य नहीं है ? .
पर्वत का चूर्ण बनाकर पुनः पर्वत बनाना, कुआँ बन्द करके पुनः कुआँ बनाना, बनाई हुई सृष्टि को नष्ट करके पुनः उसकी रचना करने में कौन सी समझदारी है ? यह सृष्टि जो बनाई है उसका महाप्रलय के समय संहार करके पुनः दूसरे युग में नवीन सृष्टि की रचना करने का निरर्थक परिश्रम क्यों ? । ___ भले ही नव निर्माण करो परन्तु कब ? पुराने में भूल हो, कोई न्यूनता हो, गलत अथवा विपरीत हो गया हो तब तो अवश्य नव-रचना करो, यह उचित भी कहलाएगा । परन्तु जब नई सृष्टि बनाते हैं तो पुनः जैसी पुरानी सृष्टि थी वैसी ही बनाते हैं । वेद में देख देखकर जैसा वेद में उल्लेख है वैसी ही बनाते हैं, जैसी 'भूतकाल में थी वैसी ही बनाते है तो इस में कोई औचित्य नहीं लगता । यह बात
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