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औद/पूर्व संग्रह
ASTRA
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ROMISSUE
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रहना नमो सिमा
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नमोप्रायशि मनोPायाम नहोलमध्यमापन एमोचनम् का परामको मानात सास पमहबईमाई
इतने विराट चौदह पूर्वरुप ग्रंथ जैन धर्म के श्रुतज्ञान के क्षेत्रे में उच्चतम कोटि के ग्रंथ हैं । द्वादशांगी आदि समग्र श्रुतज्ञान पूर्वो में समाहित था, परन्तु दुर्भाग्यवश कालांतर में पूर्व सम्पूर्णरुप से सर्वथा विच्छिन्न हो गए । इस में कालिक भवितव्यता ही प्रबल कारण हैं । एक तो पंचम आरा, हुंडा अवसर्पिणी का अधोमुख काल और उस में भी कलिकाल ! ऐसे विकट काल में ऐसे उत्कृष्ट कोटि के पूर्व ग्रंथो का विच्छिन्न होना क्या दुःखद नहीं लगता है ? कालांतर में पूर्वो के विच्छिन्न हो जाने के पश्चात आज ढाई हजार वर्षोपरान्त हमारे पास मात्र ४५ आगम ही शेष रह पाए हैं। वर्तमान काल में श्रुतज्ञान के क्षेत्र में जैन संघ के पास ४५ आगमों की निधि ही सर्वश्रेष्ठ और सर्वोत्कृष्ट बृहत्तम निधि हैं । ___ - ऐसे सर्वोत्कृष्ट समस्त पूर्वो के दोहन मंथनोपरान्त प्राप्त नवनीत रुप पदार्थ यह नवकार महामंत्र है । छाछ का बिलोना करके जिस प्रकार सारभूत तत्त्व के रुप में नवनीत निकाला जाता है, उसी प्रकार श्रुतज्ञान - शास्त्रों का मंथन करके उनमें से सारभूत पदार्थ जो भी निकलता हो अथवा निकला है वह नवकार महामंत्र रुप नवनीत है।
इसी लिये महानिशीथ नामक आगम ग्रंथ के ऊपर दिये गए प्रथम श्लोक में “सयलागमंतरोवक्ती" शब्द का प्रयोग किया हैं अर्थात सभी आगमों में व्याप्त कहा गया है । उनमें भी यह किस प्रकार व्याप्त है - यह प्रदर्शित करने के लिये