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आधार पर राग-द्वेषयुक्त इच्छाओं का पहाड खड़ा हो जाता है । व्यक्ति उन इच्छाओं की तृप्ति हेतु पुनः राग-द्वेष करता है, जिससे पुनः इच्छा होती है, पुनः राग-द्वेष का जन्म ! इस प्रकार राग-द्वेष और इच्छा की अंडे और मुर्गी की तरह परम्परा चलती ही रहती है और फिर तो इस परम्परा का अंत ही नहीं आता है। इसीलिये ज्ञानी महापुरुषों ने हमें इच्छा निरोध करने की सलाह दी है | इच्छाका निरोध करने में सामर्थ्य आवश्यक हैं । क्या ब्रह्माजी में इतना भी सामर्थ्य न था कि वे स्वेच्छाधीन हो गए ? क्या समझा जाए ? ईश्वर के आधीन इच्छा या इच्छा के आधीन ईश्वर ? कौन किसके आधीन है । जो इच्छा के आधीन होता है वह उसका दास कहलाता है, वह परतंत्र पराधीन कहलाता है । जो इच्छा से मुक्त होता है वही सच्चे अर्थ में स्वतंत्र कहलाता है । क्या ईश्वर को इच्छा के आधीन माना जाए ? क्योंकि सभी बातों में जहाँ कोई भी कारण न मिले तब ईश्वरेच्छा को
अंतिम कारण के रूप में प्रस्तुत किया जाता हैं । ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण क्यों किया ? तो कहते हैं बस, ईश्वर की इच्छा । ईश्वर सृष्टि का महाप्रलय क्यों करता हैं ? बस, ईश्वरेच्छा, जगत में जीवों को सुखी - दुःखी क्यों करता है ? बस, ईश्वर की इच्छा । यह समुद्र, ऐसी पृथ्वी, ऐसे पर्वत यह सब बनाने का कारण ? बस, ईश्वर की इच्छा और ये कीड़े मकोड़े आदि क्यों बनाए ? आदि ऐसे अनेक प्रश्नों के उत्तर में ईश्वर की इच्छा के सिवाय कोई अन्य उत्तर नहीं है ।
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इच्छा वैपरीत्य :
ईश्वर में इच्छा की विपरीतता भी दिखाई पड़ती है । जो ईश्वर सृष्टि का निर्माण करता हैं - अर्थात् बनाने और पालन पोषण करने के पीछे रागेच्छा का हाथ होता है, परन्तु वहीं ईश्वर जब सृष्टि का प्रलय - संहार करता है तब क्या समझा जाय ? प्रलय-संहार द्वेष बुद्धि के बिना संभव नहीं है । क्या स्वनिर्मित सृष्टि स्वयं को ही पसंद नहीं ? अथवा क्या रचना में कोई त्रुटि रह गई ? अथवा क्या यह रचना ईश्वर की इच्छानुसार नहीं हुई ? क्या जैसा सोचा था - जैसी इच्छा थी उससे विपरीत हो गया ? क्या कारण हुआ कि यही निर्माता ईश्वर सृष्टि का संहार - महाप्रलयभी करने लगा ?
एक माता बालक को जन्म देती है । बच्चे के जन्म से पूर्व माता की संतान प्राप्ति की इच्छा प्रबल होती हैं । संतान प्राप्ति की इच्छा क्यों ? किस लिये ? तो इसका उत्तर स्पष्ट है कि राग से परिपूर्ण इस संसार में संतान का मोह, संतान
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