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________________ द्वेष के भाव ही है । इसीलिये इच्छा रागप्रधान भी होती है तथा द्वेषप्रधान भी होती है । राग से भरी हुई इच्छा में राग-लोभ आकांक्षा, मोहादि ममत्वभावों की गंध होगी और इससे विपरीत द्वेष प्रधान इच्छा में विपरीत भाव रहेंगे । राग से विपरीत भाव द्वेष में रहता है । इसीलिये इच्छा को राग के घर में गिनाते हुए पूज्य वाचकमुख्य उमास्वाति महाराज प्रशमरति प्रकरण ग्रंथ में स्पष्ट रूप से निर्देश करते हुए फरमाते हैं कि ....... ___ इच्छा, मूर्छा कामः स्नेहो, गार्थ्य ममत्वमभिनन्द :। ___ अभिलाष इत्यनेकानि रागपर्यायवचनानि ॥ इच्छा, मूर्छ, काम स्नेह, गृद्धता, ममत्व, अभिनंद और अभिलाषा आदि अनेक राग के पर्यायवाची शब्द हैं, राग के ही रूपांतरित अन्य पर्याय हैं अर्थात् रागवाची भाव हैं - शब्द हैं । इतने अनेक शब्दों से राग भावना प्रकट होती है । इससे स्पष्ट होता है कि इच्छा में राग की तीव्र गंध है । रागादि भावविहीन इच्छा संभव नही है । . इच्छाविहीन राग और रागविहीन इच्छाओं की पल भर कल्पना तो करके देखो । बड़ी ही सूक्ष्मतापूर्वक देखेंगे तो पता चलेगा कि क्या राग-द्वेषादि. भावविहीन इच्छा का स्वरूप हो सकता है ? क्या कोई ऐसी भी इच्छा संभव है जिसमें राग द्वेष का नाम मात्र न हो ? यहाँ ब्रह्माजी को सृष्टि निर्माण करने की इच्छा हुई है, तो क्या इस इच्छा में सृष्टि के प्रति राग या ममत्व भाव नहीं दिखता है मेरी सृष्टि है मेरे द्वारा निर्मित सृष्टि - ये भाव “मदीया इयं सृष्टि" वाक्य से प्रकट होता है । सृष्टि के प्रति ममत्व - राग भाव स्पष्ट रूप से झलकता है । ममत्व मोह के बिना संभव नहीं । ममत्व सदैव मोहजनित होता है । मोह आत्मा पर आवरण है कर्म बंध स्वरूप में है । जिस प्रकार गाड़ी के पहिये होते हैं उसी प्रकार मोहनीय कर्म के इच्छा, ममत्व - राग - द्वेष रूपी पहिये होते हैं, जिस पर मोहनीय कर्म की गाड़ी चलती हैं । यदि सृष्टि का निर्माण ईश्वर ने ही किया हो तो प्रश्न उठता है कि सर्व प्रथम ईश्वर को सृष्टि - निर्माण करने की ही इच्छा क्यों हुई ? अन्य कोई इच्छा क्यों न हुई । इच्छा हुई ही क्यों ? मोहनीय कर्मावरण से जो रहित हो, मुक्त हो, उसमें इच्छा की संभव ही नहीं है । इच्छा से स्वरूप विकृति : व्यक्ति स्वयं निरर्थक इच्छा का पोषण करता है और उसके मोहनीय कर्म के 226
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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