SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 247
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गर्धवांछाऽऽशेच्छेहातृड् मनोरथा : ।। कामोऽभिलाषो.." । लोभ, तृष्णा, लिप्सा, वशः स्पृहा कांक्षा (आकांक्षा), गृद्धि, वांछा, आशा, ईहा, तृषा, मनोरथ, काम और अभिलाषा, (रुचि और ईप्सा, कामना) आदि शब्द इच्छावाची - इच्छा के पर्यायवाची के रूप में संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होते हैं और मूल संस्कृत भाषा के अनेक शब्द गुजराती - मराठी, हिन्दी आदि भाषाओं में प्रयुक्त होते हैं । उपरोक्त इन सभी शब्दों को देखने से हमारे ध्यान में आ जाएगा कि 'इच्छा' कितने अर्थों में हैं ? अब ईश्वर को होने वाली इच्छा का विचार करें । ईश्वर में सृष्टि उत्पन्न करने की अथवा विनाश करने की जो इच्छाएँ जागृत होती है - वे इच्छाएँ कैसी हैं ? शास्त्र सिद्धान्त में इस सूत्र के द्वारा स्पष्ट करते हैं कि - ‘एकोऽहं बहुस्याम् प्रजायेय' अर्थात् ब्रह्माजी को इच्छा हुई कि “मैं अकेला हूँ, अतः बहुरूपं में बनूँ" अनेक रूपों में बनें और प्रजोत्पत्ति करूँ, प्रजा का निर्माण करूँ और इसी इच्छा से ब्रह्माजी ने सृष्टि की रचना की। क्या इच्छा में राग की गंध नहीं आती ? यहाँ प्रश्न होगा कि ब्रह्माजी आराम से निश्चिन्त होकर सोए हुए थे अथवा बैठे थे.... और अचानक उन्हें ऐसी इच्छा क्यों हो गई ? ऐसी इच्छा उत्पन्न होने के पीछे क्या कोई कारण था ? मानो कि इच्छा उत्पन्न हो गई, परन्तु क्या ब्रह्माजी अपनी उस इच्छा पर नियंत्रण नहीं रख सकते थे ? इच्छा उत्पन्न होने से पूर्व भी रोक सकते थे, और पूर्व में ऐसा नहीं कर सके तो इच्छा उत्पन्न होने के पश्चात् भी तदनुसार कार्य करने से. वे बच सकते थे । क्योंकि योगीजनों, तपस्वियों, साधकों की साधना शक्ति इतनी प्रबल होती है कि वे अपनी इच्छाओं का निरोध कर सकते हैं । इच्छा उत्पन्न होने से पूर्व तथा पश्चात दोनों प्रकार से नियंत्रित किया जा सकता है । इसे ही योगिओं का सामर्थ्य कहते हैं । इच्छा का उत्पन्न होना तो सामान्य बात है । सामान्य जन अथवा क्षुद्र जीव को भी इच्छा उत्पन्न हो सकती है । इच्छा की उत्पत्ति का मूल घर मन है । मन के बिना इच्छा उत्पन्न नहीं होती। मन भी माध्यम या साधन मात्र है, परन्तु वास्तव में तो आत्मा में रहा हुआ मोहनीय कर्म, तद्जन्य राग-द्वेषादि भाव और इस प्रकार मन में से इच्छा जागृत होती है, परन्तु जिस प्रकार आकाश में दिखाई पड़ने वाले धुएँ का मूल तो लगी हुई अग्नि तक होता है, उसी प्रकार मन में उत्पन होकर बाहर प्रकट होती इच्छा का मूल तो आत्मा पर लगे हुए मोहनीय कर्मजन्य राग 225
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy