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निवारण हेतु ईश्वर जन्म लेता है अथवा मूलरूप से सृष्टि के निर्माणार्थ ईश्वर जन्म लेता है ? इन दोनों में से क्या समझा जाए ? इन श्लोकों के शब्द तो स्पष्ट ही कहते हैं कि - 'संभवामि युगे युगे..' युग् - युग् में अर्थात् प्रत्येक युग में मैं होता हूँ । ईश्वर सभी युगों में अवतार लेता है तो प्रश्न होता है कि अब तक कितने युग बीत गए ? काल की अनादिता की दृष्टि से तो अनंत युग बीत गए और तब तो अनंत अवतार भी हुए ही होंगे न ? या फिर अवतार २४ ही हुए हैं ? अथवा इन २४ अवतारों को ही सभी युगों का नियंता कहा गया हैं ? इस हिसाब से दो प्रकार के ईश्वर अलग अलग मानने पड़ेंगे। एक ईश्वर तो मूल सृष्टि के निर्माता और दूसरे युग-युग में उत्पन्न अव्यवस्था का निवारण करने वाले ।.
इस प्रकार तो अनेक स्थानों पर अनेक प्रकार की अव्यवस्थादि है तो इन सब के लिये कितने प्रकार के ईश्वरों को हमें स्वीकार करने पडेंगे ? इस प्रकार से तो अनवस्था हो जाएगी और अनवस्था तो सिद्धान्त में दोष है । फिर तो ईश्वरों की संख्या सीमित ही नहीं रहेगी ? हमें अनंत ईश्वरों की बात स्वीकार करनी पड़ेगी। चारों ओर से दोषों की भरमार आएगी और तब तो निर्माता ईश्वर की असमर्थता प्रकट होगी और व्यवस्था बिठाने वाले ईश्वर का सामर्थ्य प्रकट हो जाएगा । तो क्या हमें एक ईश्वर का सामर्थ्य और दूसरे ईश्वर की असर्मथता स्वीकार करनी होगी ? सृष्टि के निर्माता असमर्थ कहलाएँगे कि जिसके कारण सृष्टि में विकृति - विकार आदि दोष आए और अव्यवस्था फैली ? जबकि ईश्वर तो नित्य है तब फिर उस नित्य ईश्वर की उपस्थिति में ऐसी अव्यवस्था क्यों हुई ?
यदि उसकी असमर्थता के कारण अव्यवस्था हुई तब तो फिर भले ही दूसरा ईश्वर अवतार ले ले, क्या उसमें सामर्थ्य थोड़े ही आ जाएगा ? यब बात सर्वथा असंभव है । यदि साथ ही असामर्थ्य का पक्ष स्वीकार करते हो तब तो सामर्थ्यविहीन ईश्वरत्व ही कैसा ? फिर तो सामान्य मानव में भी असामर्थ्यता तो है ही फिर उसे भी ईश्वर मानना पड़े और ऐसा करते हैं तो अतिव्याप्ति दोष आ जाता हैं । ऐसी स्थिति में क्या किया जाए ?
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'इच्छा' क्या है ? इसकी विचारणा :
'इच्छा' शब्द के अन्य अनेक पर्यायवाची नाम हैं, उन्हें पहले देखते हैं । ' अभिधान चिंतामणी कोषकार श्री हेमचंद्राचार्य महाराज 'इच्छा' के पर्यायवाची शब्द इस प्रकार बताते हैं- लोभस्तृष्णालिप्सा वशः स्पृहा ! कांक्षाऽऽशंसा
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