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________________ इस प्रकार अवतारवाद में एक ही सर्वोपरि सत्तावाला ईश्वर पुनः पुनः आकर जन्म लेता है । हिन्दुओं में ऐसे २४ अवतार माने हैं, मुसलमानों ने २४ पैगंबर माने हैं और जैनों ने २४ तीर्थंकर माने हैं, परन्तु २४ की संख्या की सादृश्यता से सब कुछ एक ही स्वरुप में मानने की भूल न कर बैठें। सभी एक ही हैं - ऐसा कहीं न मान लें । जैन धर्म में २४ तीर्थंकर भिन्न भिन्न और स्वतंत्र हैं। एक ही परमात्मा ने पुनः पुनः जन्म नहीं लिया है अतः सभी अलग अलग हैं, स्वतंत्र हैं । आत्मा, शरीर, काल, देश, क्षेत्र, नाम आदि सभी प्रकार से वे स्वतंत्र हैं, जब कि हिन्दू धर्म में एक ही ब्रह्मा सर्वोपरि ईश्वर हैं । वही बार बार जन्म लेता हैं, फिर भी चौबीसों अवतारों को एक के ही भव-जन्म अथवा भवपरम्परा के रूप में माना नहीं गया है । 1 जैन दर्शनकारों ने २४ तीर्थंकरों को स्वतन्त्र माना है । अर्थात चौबीसों की भव परम्परा, जीवदल आदि भिन्न भिन्न माने हैं । आदिनाथ भ के तेरह भव, पार्श्वननाथ भ. के दस भव, शांतिनाथ भ. के १२ भव, नेमिनाथ भ. के ९ भव, महावीर स्वामी भ. के २७ भव माने हैं । अन्य अनेक भगवानों के ३-३ भव हुए हैं। यह एक एक जीव की इतनी भव की संख्या है । इतने भवों में अंतिम भव में वे तीर्थंकर बनकर मोक्ष में गए । हिन्दू धर्म में ऐसा नहीं कहा गया हैं कि राम का अवतार तीसरा जन्म है और चौथा भव श्री कृष्ण का है तथा पाँचवा भव वराह का है और उन्हीं का छठा भव मत्स्यावतार है - आदि आदि । इस प्रकार अवतारवाद को भव संख्या में नहीं गिनाया या समाविष्ट नहीं किया गया हैं । जैन अवतारवाद को क्यों नहीं मानते ? आईये ! हम इस प्रश्न का भी विचार कर लें कि जैन दर्शनकार अवतारवाद की प्रक्रिया क्यों नहीं मानते है ? क्यों मानें ? उत्तर स्पष्ट है कि एक बार जो परमात्मा सभी प्रकार के कर्मों का क्षय करके सर्वथा कर्मबंधन से मुक्त होकर मोक्ष में चले जाएँ और भवोपग्राही कर्मों का क्षय होने के पश्चात् सर्वथा अजर अमर निरंजन - निराकार बन गए हों, सर्वथा राग-द्वेष रहित वीतराग - सर्वज्ञ बन गए हो और परम मुक्तिधाम में सदैव के लिये स्थिर हो गए हो, उन्हें पुनः इस संसार में लौटने का प्रयोजन ही क्या रहता हैं ? वे फिर वापस क्यों आने लगे? जैन दर्शन कर्मवादी है । अतः सर्व कर्मक्षय होने के पश्चात् सर्वकर्ममुक्त परमात्मा को बिना कर्म के संसार में लौटने का रहता ही नहीं, जन्म लेना ही नहीं इसी का नाम मोक्ष 221
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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