________________
हैं, मुक्ति है । मुक्ति अर्थात् संसार से मुक्ति, कर्म से मुक्ति, भवपरंपरा से मुक्ति, जन्म-मरण से मुक्ति । जैन धर्म में ईश्वर सृष्टि का कर्ता अथवा रचयिता ही नही, तब फिर वह सृष्टि की चिंता भला क्यों करें ? उसे सृष्टि की सम्हाल लेने के लिये लौटने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है अर्थात् बिल्कुल नहीं रहती है । नमुत्थुणं सूत्र में - 'अपुनरावृत्ति' शब्द से निषेध किया हैं ।
दूसरी ओर जगत कर्तृत्ववादी सृष्टि को ईश्वर द्वारा रचित मानते हैं । उनकी मान्यता है कि ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है । जिस प्रकार माता बालक को जन्म देती है फिर उस बच्चें की देख-रेख, लालन-पालन आदि करने का सारा दायित्व माता-पिता का होता हैं, अतः माता-पिता उस बच्चे के सुख-दुख में अपना उत्तरदायित्व भली प्रकार निभाते हैं, उसका पालन-पोषण करते हैं, इसी प्रकार इस सृष्टि का निर्माता जो ऊपर वाला ईश्वर है, उसकी यह जीव- सृष्टि पुत्रवत् प्रजा हुई और ईश्वर प्रजापति प्रजापिता हुए । जब ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किया है तो सृष्टि का पालन करना, ध्यान रखना, सुख दुःख में सम्हाल रखना आदि माता-पिता की भाँति ईश्वर की ही संपूर्ण जिम्मेदारी होती है । इसीलिये भगवद् गीता के उपर्युक्त श्लोक में कहा गया हैं कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है, अधर्म का उदय होता हैं, दुर्जनों की वृद्धि होती है और सज्जन साधु-संतो को पीड़ा पहुँचाई जाती है, तब तब ईश्वर अवतार लेते हैं, पुनः पुनः युग-युग में उनका पुनरागमन होता है और वे सृष्टि की व्यवस्था यथावत् कर जाते हैं । यह ईश्वर का कार्य है, यह उसका उत्तरदायित्व है ।
-
-
एक बार बच्चे को जन्म देने के पश्चात् आजीवन उसकी देख-रेख रखना माता का कर्तव्य है इसी प्रकार प्रजा के पिता के रूप में ईश्वर का उत्तरदायित्व सृष्टि की देखरेख रखना हो जाता हैं। एक बार सृष्टि बनाई, उसका निर्माण किया कि स्थायी रूप से ईश्वर का उत्तरदायित्व हो जाता है, उसके सिर पर चिंता बनी रहती है अतः वह पुनः पुनः जन्म लेता है ।
सृष्टि में अव्यवस्था होती ही क्यों है ?
श्रीमद् भगवद् गीता के उपर्युक्त श्लोक की समीक्षा करने पर इसमें से अनेक प्रश्न उत्पन्न होते हैं । जो ईश्वर सृष्टि बनाता हैं, जिसकी इच्छानुसार यह सृष्टि का रचयिता ईश्वर नियंता नियामक बन बैठा हैं । उस सृष्टि में अव्यवस्था कैसे ? क्या ऐसी अव्यवस्था से ईश्वर अनभिज्ञ रहता है अथवा क्या उसके जानते
222