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इस प्रकार ईसाई मानते हैं कि उनके ईश्वर भी सृष्टि की रचना करते हैं । वे भी जगत् कर्तृत्ववादी हैं । ईश्वर को संसार बनाने वाले के रूप में मानते हैं तब प्रश्न ही कहाँ रहा ? वे भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि इस सष्टि की रचना करने में ईश्वर को भी पाप लगा - दोष लगा, इसके लिये HolyDay की व्यवस्था कर रखी है । यदि उस ईश्वर को सृष्टि की रचना करने में पाप-दोष लगता हैं तो फिर अन्य ईश्वरों को क्यों नहीं ? हिन्दू धर्म में यह मान्यता नहीं मानी गई हैं | किसी अन्य मतने भी सृष्टि के निर्माण कार्य में ईश्वर को पाप-दोष लगता हैं - ऐसी बात ही नहीं मानी । किसी अदृष्ट ईश्वर के विषय में वे मानते ही नहीं है तो उसके फल की तो बात ही कहाँ रही ?
अवतारवाद में भव-परम्परा का अभाव :
हिन्दू धर्म अवतारवादी हैं । हिन्दू लोग ईश्वर के जन्म को अवतार मानते हैं । ईश्वर सर्वोपरि एक ही सत्तामात्र हैं । वह पुनः पुनः अवतार लेता हैं | अवतरित होना अर्थात उतरना, ऊपर से आकर जन्म लेना । एकेश्वरवादी मूलभूत एक ही ईश्वर की सत्ता अंगीकार करते हैं । वे कहते हैं कि एक ही ईश्वर पुनः पुनः आकर जन्म लेता हैं जिसे वे अवतार कहते हैं । प्रश्न उठता है कि ईश्वर पुनः पुनः क्यों आता हैं, पुनः पुनः क्यों जन्म लेता है ? जन्म लेने का प्रयोजन भगवद्गीता में इस प्रकार बताया गया हैं :
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारतः । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम् ॥४/७॥ परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृतम् ।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥४/८॥ भगवद् गीता में चतुर्थ अध्याय के इन श्लोकों में भगवान के आविर्भाव का काल और प्रयोजन बताते हुए श्री कृष्ण अर्जुन को स्पष्ट रूप से कहते हैं कि 'हे अर्जुन' जब जब धर्म की ग्लानि-हानि होती है, ह्रास होता है और अधर्म का अभ्युत्थान - उदय होता है, तब तब मैं अपनी आत्मा का सृजन करता हूँ, पुनः जन्म धारण करता हूँ और सन्मार्ग पर चलने वाले साधु-सन्तों की रक्षा हेतु तथा दुष्टों दुर्जनों का विनाश करने हेतु व साथ ही साथ धर्म की स्थापना करने के लिये मैं युग-युग में - प्रत्येक युग में जन्म धारण करता हूँ । इस प्रकार विपर्यय काल में मुझे जन्म लेना पड़ता है और तभी सारी व्यवस्था भली प्रकार चल सकती है।
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