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क्या अच्छी कहलायगी ? नहीं ऐसी क्रिया तो बुरी - अशुभ ही मानी जाती है। पाँच व्यक्तियों के बीच भी ऐसी लीला की बात की जाए तो वे भी लज्जित हो जाते हैं, लज्जा के मारे उनका सिर झुक जाता हैं । अच्छी गौरव लेने जैसी बात होती तब तो बात और ही होती परन्तु यह कौनसी लीला गर्व करने योग्य और उत्तम है ? इस लीला की बात अभी छोड़ देते हैं और तांडव लीला का विचार करें ?
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तांडवलीला में जब ईश्वर महादेव शंकर भगवान नटराज का रुप धारण करके, उलटे घड़े पर, एक पांव पर खड़े होकर हाथ में डमरु बजाते हुए सृष्टि का प्रलय करते हैं जिसे तांडव लीला कहते हैं, तब चारों और तांडव मचा देते हैं । समस्त सृष्टि का प्रलय करके सृष्टि को वे समाप्त कर डालते हैं। क्या ऐसी लीला करने से भी कोई अदृष्ट निर्माण होता है या नहीं ? यदि न होता हो तो किसी भी जीव के लिये नहीं होना चाहिये । तब तो यहाँ मना करते हैं । कहते हैं नहीं, अन्य जीवों के लिये अदृष्ट निर्माण होता ही हैं, मात्र ईश्वर के लिये ही नहीं । तो प्रश्न उठता है कि ऐसा पक्षपात क्यों ? सभी बातों में ईश्वर और अन्य सभी जीवों की प्रक्रिया में अन्तर क्यों रखा गया है ? हाँ, जीवों में अन्तर भले ही हो, परन्तु अदृष्ट या इच्छा - या लीला आदि की प्रक्रिया में भेदभाव क्यों रखा गया हैं ? अदृष्ट पुण्य पाप की प्रक्रिया सब के लिये समान है तो उसका फल भी सब के लिये समान ही होना चाहिये अन्यथा कर्म धर्म की व्यवस्था ही बिगड़ जाएगी । इसमें तो साम्यता ही अपेक्षित हैं ।
जैन मान्यता में एक वाक्यता :
जैन दार्शनिकों ने कर्म - धर्म की तरह ही अदृष्ट - पुण्य पाप के फलादि के विषय में साम्यता रखी हैं, सर्वत्र एकवाक्यता रखी हैं । पाप चाहे भगवान करे अथवा कोई सामान्य जीव करे - पाप पाप ही हैं । समान पाप हो - समान पाप
प्रवृत्ति हो और उसे करने वाले मनुष्य, राजा, देव - देवी या इन्द्र हो, पशु-पक्षी हो अथवा भगवान स्वयं हो- जो भी पाप करता हैं वह अपनी रीति से स्वयं अशुभ दुःखात्मक फल भुगतता है - इसमें जरा भी शंका की बात नहीं है । ईश्वर कृतपाप पुण्य रूप में गिना जाए और सामान्य मनुष्यकृत पाप पाप रूप में गिना जाए - यह बात जैन दर्शन नहीं मानता । कर्म धर्म की व्यवस्था जैन दर्शन में एक समान हैं । अतः धर्म और धर्मोपदेशक भी सर्वत्र एक समान हैं । इसे पाप कहते हैं, यह पाप कोई न करे ऐसी संपूर्ण एक वाक्यता का पालन होता हैं ।
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