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महाप्रलय करना यह भी लीला । ऐसी तो सैंकड़ो लीलाओं से भगवान का जीवन - चरित्र अलंकृत किया गया हैं । आभूषण रहित नारी जैसी स्थिति लीलारहित भगवान की हो जाए अतः लीला को तो आभूषण की तरह शोभा गिना है, और इसे दूर न करके अधिक से अधिक बढ़ाई गई है। अधिक महत्त्व देते हुए मुक्त रुप से कथा वांचन के समय लोगों के समक्ष प्रस्तुतिकरण होता है, अतः सामान्य मानव के समक्ष तो लीला और भगवान मानो एक दूसरे के पर्यायवाची नाम ही हो गए हैं - ऐसा लगता है । भगवान के बिना लीला नहीं अथवा लीला के बिना भगवान नहीं - इन दोनों पक्षों में सत्य क्या लगता है ? कई लोग उत्तर देते हैं - 'हाँ, यही ठीक हैं, यही उचित है । भगवान के बिना लीला कोई कर ही नहीं सकता और लीलारहित भगवान भी कोई नहीं हो सकता । जो भी भगवान बने उसे लीला करनी ही पड़ती है, क्योंकि लीला करना भगवान का धर्म है, अधिकार
परन्तु भगवान लीला क्यों करता है ?
. दृष्टादृष्ट का विचार हो अर्थात् पुण्य - पाप अथवा अच्छे - बुरे का विचार यदि दृष्टि सम्मुख हो तो मानव सोच - समझ पूर्वक कार्य करेंगा । बिना समझे वह कार्य नहीं करेगा । भगवान ऐसी लीला करता है और फिर इस लीला का भी अदृष्टं जो निर्माण होता है उसका क्या ? क्या उसका उपभोग करने के लिये भगवान को भी कोई अन्य जन्म लेने पड़ते होंगे ? कैसे कैसे फल भुगतने पड़ते होंगे ? अच्छे या बुरे ? और यदि भगवान को फल भोगने पड़ते हो तो वह किस प्रकार भोगता होगा ? अथवा उन्हें उनके अदृष्ट के फल कौन देता होगा ? जैसे भगवान अन्य जीवों को उनके द्वारा कृत अच्छे - बुरे कार्यों का फल देता हैं, फल देने वाला होने से नियंता है, उसी प्रकार भगवान अपनी लीला द्वारा जो अदृष्ट उपार्जित करता है उसका फल उसे देने वाला कौन होता है ? ईश्वर द्वारा कृत लीला के लिये उसे उसका फलदाता कौन ? किसे माने ? फिर अशुभ अदृष्ट के आधार पर उन्हें नरक या दुर्गति में भी जाना पडता होगा? और शुभ अदृष्ट के आधार पर उन्हें स्वर्ग में भी जाना पड़ता होगा? तो क्या नरक के परमाधामी ऐसे ईश्वर को उनके कर्मो का फल देते होंगे ? तब तो फिर ईश्वर में और सामान्य मानव के जीवन में क्या अन्तर हुआ ? फिर तो दोनों को समकक्ष एक ही स्तर का जीवन यापन करने वाले मानने चाहिये । गोपिकाओं के वस्त्रापहरण की लीला
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