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________________ जाए ? उसे ऐसे करने का निषेध क्यों ? अन्य व्यक्ति जब भगवान की लीला का अनुकरण करने लगता है तब 'पाप' के नाम की मुहर लगाकर उसे रोका जाता है - ऐसा पाप करेगा तो तूं नरक में जाएगा, तेरा बहुत ही बुरा हाल होगा । ऐसा क्यों कहा जाता है ? सामान्य व्यक्ति भी यदि अपने बचाव में तर्क करे तो हमारे पास उसका उत्तर क्या है ? स्नान के लिये तत्पर बनी हुई गोपिकाओं (स्त्रियों) का वस्त्रापहरण सामान्य व्यक्ति को भी करने दो... उसे भी ऐसी ही लीला करने का आनंद लूटने दो । लीला यदि अच्छी वस्तु हो और भंगवान जो करे उसे बुरा या गलत हम कह ही न सकें तब उस वस्तु अथवा क्रिया पर प्रतिबंध कैसे लगा सकते हैं ? एक ही क्रिया को भगवान की लीला और सामान्य व्यक्ति का पाप कहने का अधिकार कैसे मान्य हो सकता है ? लीला करने का अधिकार मात्र भगवान को ही क्यों दिया गया है ? यह अधिकार स्वतंत्र रूप से मात्र भगवान के लिये ही आरक्षित क्यों ? यदि भक्त भी करे तो उसे कैसे दिया जाए । उसके लिये भगवान की वह लीला निषिद्ध - प्रतिबंधित क्यों ? और यदि भक्त को निषेध करना ही पड़ता हो, क्यों कि अच्छा नहीं लगता, बुरा लगता हैं, तब फिर भगवान के साथ ऐसी लीलाएँ जोड़कर भगवान का महत्त्व बढ़ाने में हमें शर्म क्यों नहीं आती ? ऐसी वस्त्रापहरण जैसी लीलाओं से भगवान का महत्त्व बढ़ेगा या घटेगा ? ऐसा करने में तो भगवान की महत्ता में न्यूनता ही निश्चित् हैं । दूसरी ओर मनोमान्य भगवान के जीवन में से लीलाओं का अंश निकालने का साहस करने जाएँ तो नमकरहित भोजन और शक्कर विहीन चाय जैसा भगवान का जीवन भी लीलारहित सर्वथा फीका लगेगा, क्यों कि भगवान के जीवन में इतनी अधिक लीलाएँ भर दी है कि लगता है लीला के सिवाय अन्य सब गौण हो गया है । सृष्टि का निर्माण करना और वहाँ से लगाकर सृष्टि के संहार प्रलय करने तक सब लीला रूप ही है - ऐसा वेद वेदांत स्मृति पुराणादि शास्त्रों में वर्णन हैं । लीला की प्रधानता भगवान के जीवन में अधिक हैं । सृष्टि की रचना भी लीला, ' मैया मोरी मैं नहीं माखण खायो' - यह भी लीला, 'मक्खन खाने के लिये चोरी करनी पड़ी और जब पूछा गया तो झूठ बोलना पड़ा - यह भी लीला में गिना जाता है, नहाने के लिये पानी में उतरी हुई नग्नावस्था वाली गोपिकाओं के वस्त्रों का अपहरण करना भी लीला, अर्जुन को विराट ब्रह्मांड का रूप दिखाकर महाभारत का युद्ध करवाना और करोड़ों का नर संहार करवा कर खून की नदियाँ प्रवाहित करना भी लीला है और अंत में सृष्टि का संहार 216 - · -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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