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क्या भगवान भूल करता है ? क्या भूल करे वह भगवान कहलाता है ?
भूल को अपराध कहें अथवा पाप कहें अथवा दुष्कृत कहें - बात एक ही है । सामान्य तर्क भी कहता है - क्या भगवान हो तो वह भूल करे ? अथवा जो भूल करे वह भगवान कहलाए ? इस वाक्य में दो पक्ष हैं । तो क्या प्रथम पक्ष सच्चा है नहीं, भगवान होकर भूल करे - वह कैसे संभव हो सकता है ? यह बात तो ऐसी हुई कि सूर्य में अँधकार होता है, परन्तु हमारा तो दैनिक अनुभव है कि सूर्य में अँधकार संभव ही नहीं है । सूर्य और अंधकार दोनों ही विरोधी धर्म हैं । एक ही क्षण में दोनों का सहअस्तित्व कैसे हो सकता है ? इसी प्रकार भगवान
और भूल दोनों ही विरोधी धर्म हैं । एक ही क्षण में दोनों का सहअस्तित्व कैसे हो सकता है ? भगवान तो ज्ञानी - सर्वज्ञ-सर्वदर्शी होते है - होने ही चाहिये । भूल - अपराध तो अज्ञानी का कार्य है । यदि भूल अथवा अपराध भगवान के हाथों हो तो उनमें भगवान का गुण नहीं - सर्वज्ञता - सर्वदर्शिता सत्ता में नही, मात्र हमने श्रद्धाभाव से अथवा अंध श्रद्धा से मान लिया हो तो भिन्न बात हैं । अतः भूल और भगवान दोनों ही परस्पर विपरीत - विरोधी धर्म हैं । दोनों एक साथ संभव नहीं । अतएव क्या भगवान हो वह भूल करे ? अथवा अन्य प्रकार से यही प्रश्न घुमाकर - शब्द वाक्य का परिवर्तन करके भी पूछे कि क्या भूल करे उसे भगवान कहें ? तो इसके उत्तर में एक अशिक्षित ग्रामीण भी दोनो ही प्रश्नों के उत्तर में स्पष्ट नहीं कहेगा !
यदि भूल करने वाला भगवान कहलाता हो, तब तो इस जगत में हम सभी भूल करने वाले हैं । नित्य सैकड़ो प्रकार की भूलें हम करते हैं तो क्या हम सब भगवान कहलाने के योग्य सिद्ध होंगे ? नहीं - कदापि नहीं । भूल करने वाला मार्गच्युत् है - भगवान इस प्रकार नहीं बना जाता, भगवान बनने का मार्ग इतना सरल नहीं है । यह कहना बेहतर होगा कि सर्वथा भूल न करे वही भगवान । जिसके हाथों जीवनभर भूल की संभावना ही नहीं, उसे हमारा भगवान कहना तर्क संगत है, उचित है । सर्वथा अंशमात्र भी भूल न करे, और जिनके जीवन में परमाणु जितनी भी भूल न दिखाई दे, उन्हें ही भगवान कहना चाहिये । ___ लीला में क्या भूल अथवा अपराध की गंध नहीं आती है ? और यदि उसमें अपराध की गंध हो तो उसे हम भगवान कैसे कहें ? यदि लीला में कुछ भी असंगत - अयुक्त नहीं हो तब अन्य व्यक्ति को ऐसी लीला करने से क्यों रोका
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