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________________ का फल सबके लिये समान होता है । ___तब प्रश्न यह उठता है कि एक ही प्रवृत्ति, एक ही प्रकार की प्रवृत्ति होने पर भी एक को लीला और एक को पाप - इस प्रकार भिन्न भिन्न संज्ञाएँ क्यों दी गई? क्या व्यक्ति भेद से पाप में भेद हो जाता हैं ? कदापि नहीं । जो भगवान स्वयं करे वही यदि कोई अन्य व्यक्ति करे तो भगवान को यह कैसा अधिकार कि वह उसे मना कर सके । भगवान जैसी प्रवृत्ति करे वैसी ही यदि कोई सामान्य व्यक्ति कर बैठे तो क्या भगवान को उसकी निंदा करने का अधिकार है ? पिता का अनुकरण पुत्र करता है, गुरू का अनुकरण शिष्य करता है, पति का अनुकरण पत्नी करती है - यह तो व्यवहार है - प्रचलित प्रणालिका है । इसी प्रकार व्यवहार चलता रहता है । इसी प्रकार भगवान का अनुकरण यदि भक्त करता है तो क्यों नहीं चल सकता ? परन्तु यहाँ तो आश्चर्य इस बात का है कि भगवान जब भी जो कुछ भी करता है उसे लीला के नाम से सम्मानित किया जाता है, भगवान की उस लीला को उत्तम कार्य बताकर जगत् उसकी पुनः पुनः स्तुति करता है परन्तु यदि कोई जन सामान्य ऐसे ही कार्य का अनुकरण कर महान् बनने के लिये प्रेरित होता है, तो उसे रोका जाता है, उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जाती और कहा जाता है कि यह तो लीला है - प्रभु की लीला है - ऐसी लीला करने का अधिकार तो मात्र ईश्वर को ही है, मनुष्यों को यह अधिकार प्राप्त नहीं है । मानव यदि इस प्रकार अनुवर्तन करता है तो वह उसका घोर पाप कहलाता हैं। सचमुच विचार करें तो स्पष्ट लगता है कि भगवान के जीवन का एक भी कार्य ऐसा न होना चाहिये जो भक्त के लिये अनुकरणीय अथवा अनुसरणीय न हो। भगवान के कार्य का अनुकरण यदि भक्त करे तो उसे शुभ कार्य करने का आत्म संतोष होना चाहिये; महान कार्य करने का उसमें आत्मभाव प्रकट होना चाहिये । कर्मसत्ता के नियम भगवान और भक्त दोनों के लिये समान ही होते हैं। भगवान के लिये अलग और भक्त के लिये अलग नियम कर्म सत्ता में नहीं होते हैं । लीला भी यदि बुरी है, निंदनीय है, पाप की व्याख्या के अन्तर्गत आती है तो वह लीला भी पाप ही है, दृष्कृत्य ही है, पाप के रूप में ही मान्य होनी चाहिये और पाप अनाचरणीय ही होता है, चाहे वह छोटे - बड़े किसी भी स्तर के व्यक्ति द्वारा कृत हो । 214
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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