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दिये हैं और निर्जन स्थान में जो स्नान कर रही हो ऐसी निर्वस्त्र - नग्नावस्था में स्नान करती हुई गोपिकाओं को छोड़कर उनके वस्त्र चुरा ले जाने वाले श्री कृष्ण भगवान को नमस्कार हो । स्पष्ट रुप से यहाँ 'चौराय' चोर शब्द का प्रयोग किया है और फिर नमस्कार किया है । जिसे करबद्ध नमस्कार करना है, जिस नमस्कार में पूज्य भाव प्रकट करना है उन्हें चोर कहने से क्या पूज्य भाव प्रकट हो सकेगा?
और वह भी नग्नावस्था में स्नानार्थ उतरी हुई स्त्रियो के वस्त्र हरण करने वाले - ऐसे अश्लील बिभत्स निंदनीय कार्य में फंसे हुए के प्रति पूज्य भाव किस प्रकार जागृत होगा ? ऐसों को नमस्कार करने का भाव कैसे पैदा होगा ? क्या भगवान को पहले चोर कहना और फिर नमस्कार करना उचित है । बस, इसके उत्तर में उनके पास एक ही उत्तर है कि भगवान लीला करते हैं । यह तो उनकी क्रीडा मात्र है, लीला है, विनोद है, लीला में सभी प्रकार की लीलाएँ हो सकती हैं... ।
ईश्वर की लीला का अनुकरण :
ईश्वर ने जो कुछ भी किया वह अच्छा हो या खराब उसे मात्र लीला मान ली जाए ? लीला करना ईश्वर की इच्छा है, परन्तु यदि जो और जैसी लीला ईश्वर ने की है उस का अनुकरण आधुनिक लोग करें तो ! फिर तो वे वास्तविक रूप से करें अथवा नाटक के स्वरूप में करें तो चलेगा या नहीं ? यहाँ 'नहीं' उत्तर तैयार ही रखा है । कहते हैं कि ईश्वर करे वही लीला । लीला करने का अधिकार ईश्वर को ही प्राप्त है - मनुष्य को नहीं, अतः सामान्य जन लीला नहीं कर सकता
और यदि करता है तो वह पापमय प्रवृत्ति कहलाती है । ईश्वर को पाप लगता ही नहीं है, अतः वह कैसी भी लीला कर सकता है । आज यदि कोई सामान्य जन ऐसी वस्त्रापहरण की लीला करे और कहे कि मैं भी ईश्वर हूँ मैंने ऐसी ही लीला की है तो क्या कोई उसकी बात स्वीकार करेगा ? नहीं... ! वहाँ तो हम अपनी अस्वीकृति प्रकट करेंगे, परन्तु जब श्री कृष्ण ने यह लीला की थी तब कोई अस्वीकृति प्रकट करने वाला नहीं मिला था क्या ? आज उस लीला का मात्र अनुकरण करें तो वह पाप कहलाता है जैसे विष विष ही है, फिर भले ही कोई भी उसे पीए । विष का प्रभाव सब पर समान ही होता है । विष के लिये व्यक्ति के प्रति भेदभाव नहीं होता । ऐसी ही बात पाप के विषय में भी है । पाप भी व्यक्ति में भेदभाव नहीं रखता है । जो व्यक्ति पाप करता है वही उसका फल भी भोगता है, चाहे वह छोटा व्यक्ति हो या महान व्यक्ति हो, सामान्य हो या विशेष हो - पाप
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