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________________ भगवान या ईश्वर कहना है । ऐसे अरिहंत भगवंत को ही नमस्कार किया गया है। गत श्लोक में कही हुई बातें यहाँ बराबर बैठती हैं । आत्म शत्रु रुपी कर्म जिन में राग - द्वेषादि की महत्ता समाहित है उन सब का नाश करने वाले अरिहंतो को यहाँ नमस्कार किया गया है । कहने का तात्पर्य है कि राग - द्वेषादि कर्मों का नाश करने वाले और राग द्वेषादि कर्मों का नाश करने से प्राप्त वीतरागता वाले वीतरागी भगवान को ही अरिहंत के रूप में मानना है । ऐसे वीतरागी ही संसार से हमें मुक्त कर मोक्ष मार्ग की ओर ले जाने वाले हमारे नायक बने हैं । इस प्रकार महामंत्र में प्रयुक्त अरिहंत पद उभयार्थ में वाच्य बना हैं । परीक्षा भी इसी से हो गई । इसी व्याख्या को हम सूत्र - सिद्धान्त अथवा formula बनाकर सभी भगवानों - ईश्वरों की परीक्षा करके देखें कि यदि वे भगवान अरिहंत के अर्थ में सच्चे सिद्ध होते हैं या नहीं ? होते हो तो उन्हें हम भगवान माने । यदि अरिहंत के अर्थ में वे सच्चे न उतरें तो उन्हें भगवान मानने की आवश्यकता नहीं रहती। क्या अन्य में अरिहंतपन है ? जगत के अनेक धर्म हैं और उन अनेक धर्मों में अनेक प्रकार के ईश्वरों की सत्ता मानी गई है । कोई धर्म ईश्वर को मात्र लीला करने वाला मानता है, कोई सर्वज्ञ मात्र को ईश्वर कहता है, कोई ईश्वर को सृष्टि का रचयिता मानता है, कोई ईश्वर के तीन रुप मानकर सृष्टि की रचना, व्यवस्था और प्रलय करने वाला मानता है । जगत् के अधिकांश धर्म - दर्शन ईश्वर को सृष्टि का निर्माता मानते हैं । उनकी मान्यतानुसार ईश्वर सृष्टि का बनाने वाला है, जो सृष्टि का निर्माता हो, बसाने वाला हो उसे ही ईश्वर मानते हैं । कोई दर्शन कहते हैं कि ईश्वर सर्वज्ञ होना आवश्यक है, तो कोई अन्य दर्शन कहता है कि ईश्वर का सर्वज्ञ होना आवश्यक नहीं है । सर्वज्ञ न हो तब भी हम उसे ईश्वर मानने के लिये तैयार हैं। कोई जगत्कर्ता को ईश्वर मानते हैं तो कोई जगत् कर्ता न हो तब भी उसे ईश्वर मानते हैं । कोई ईश्वर को सुख दुःख का दाता मानते हैं, तो कोई ईश्वर को पुण्य - पाप का फलदाता मानते हैं। ईश्वर को कई नियंता मानते हैं । ऐसी ईश्वर संबंधी विभिन्न मान्यताएँ हैं । इन सभी मान्यताओं के अतिरिक्त अन्य धर्म तथा पाश्चात्य दर्शनादि भी अपनी अपनी भिन्न भिन्न मान्यताएँ रखते हैं। कोई ईश्वर को जादूगर की भाँति इस जगत का रचयिता मानते हैं, तो कोई ईश्वर को सर्वोपरि सर्वशक्तिमान् A Supreme Power मानते हैं । God is the father of all भगवान सबके पिता 210
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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