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इस प्रकार सामूहिक रूप से विशेषणों का सिद्धान्त वाला कसोटी का जो पत्थर बना कर हमें शास्त्रकार महर्षियों ने दिया है अथवा जो चार सूत्र हमें दिये हैं उनके आधार पर ईश्वर की परीक्षा करनी चाहिये । ये चार सूत्र संक्षेप में इस प्रकार हैं (१) मोक्ष मार्गोपदेशक मोक्ष मार्ग अर्थात् धर्म के उपदेशक (२) कर्ममलदोषरहित, अर्थात् राग - द्वेष रहित वीतराग, (३) सर्वज्ञ - अनंतज्ञानी (४) तीर्थंकर - तीर्थेश जो हो - इन चार विशेषणों से जो अलंकृत हो वही ईश्वर / भगवान कहलाने की अर्हता रखता है ।
प्ररूपक
Jainism is the most logical religion इस प्रकार देखने से जैन धर्म हमें कितना स्पष्ट तर्कयुक्त और बुद्धिगम्य लगता है - इसका हमें ख्याल आता हैं । ईश्वर जैसी हस्ती की परीक्षा करने का साहस जैन धर्म ने हमें दिया है, इस से मात्र अँध श्रद्धा पर नहीं ले गए, बल्कि तर्क युक्ति गम्य, जैन धर्म बताया गया हैं । मात्र भगवान की ही नही, बल्कि धर्म, गुरु आदि अर्थात् देव - गुरु तथा धर्म और जीवादि सभी तत्त्वों वर्गों के विषय में ये ही तर्क युक्त एवं बुद्धि गम्य सूत्र प्रस्तुत किये गए हैं । अतः जैन धर्म गुणानुरागी धर्म हैं, यह व्यक्तिवादी धर्म नहीं है । प्रत्येक विषय - सिद्धांत का तार्किक युक्तिसंगत उत्तर दाता जैन धर्म हैं । 'बाबा वाक्यं प्रमाणं' की बात यहाँ नहीं कही गई हैं। लोक प्रवाह पर चलने अथवा बाप के कुएँ में कूद गिरने की बात यहाँ नहीं कही गई है - जैन धर्म की यही विशिष्टता है । जैन धर्म ने परीक्षा के द्वार बन्द न करके खुले रखे हैं । इसीलिये जैन धर्म के सिद्धान्त सदैव नवीन और ताजे लगते हैं । वे बाबा वाक्यं नहीं लगते । उन्होने अंधश्रद्धा और मिश्र श्रद्धा को भी तिलांजलि दे दी है और शुद्ध सत्य स्वरूप ही ग्रहण किया है . 'सम्यग् ' शब्द सूचित करता है कि जैन धर्म ने सदैव सत्य के द्वार खुले रखें हैं ।
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'नमो अरिहंताणं' पद से परीक्षा
इस बात का प्रमाण हमें नवकार जैसे महामंत्र के प्रथम पद 'नमो अरिहंताणं' से ही प्राप्त हो जाएगा । यहाँ अरिहंत शब्द भी ईश्वर की परीक्षा तथा स्वरूप निर्णय में विशेष रूप से सहायक होने से रखा गया हैं । यह सिद्ध करता है कि अरि + हंत अरिहंत । 'अरि' अर्थात् शत्रु और 'हंत' अर्थात् उसका हनन करने वाले । यहाँ अरि शत्रु शब्द कर्म रूपी शत्रुओं के लिये है । कर्म रुपी आंतर शत्रुओं का जिन्होंने हनन किया है - पराजित किया है उन अरिहंत को ही
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