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ज्ञान होने पर जब हमें होश आएगा हमें वास्तविकता का पता चलेगा तब तक तो काफी विलम्ब हो चुका होगा... कदाचित् सिर पीट पीट कर रुदन करने की स्थिति उत्पन्न हो जाएगी और रह रहकर प्रश्न उठेगा कि मैंने यह क्या कर दिया ? मेरे ५० वर्ष पानी में गए अब हाथ मसलने के सिवाय क्या रहा ? अब तो मृत्यु भी सन्निकट है । वह दंपति जिस प्रकार कारागृह की अतिथि बने उसी प्रकार हमारी भी दुर्गति निश्चित् है । हम अपना भव हार गए। अतः ज्ञानी कहते हैं कि ऐसी पश्चाताप करने की परिस्थिति आने ही न पाए इसके लिये मानने या आराधना करने से पूर्व ही समझपूर्वक परीक्षा करके ही ईश्वर का स्वीकार करें तो कितना अच्छा होगा ?
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प्रभु की परीक्षा करने वाले हम कौन ?
मन में एक ऐसा भी प्रश्न उत्पन्न होता है कि प्रभु की परीक्षा करने वाले हम कौन होते हैं ? हम भगवान की परीक्षा कैसे करेंगे ? क्या हम से ईश्वर की परीक्षा संभव है ? नहीं नहीं - ऐसी उद्दंडता हम कैसे कर सकते हैं ? ऐसी भी मान्यता मुग्ध जीवों में होती हैं । कुछ अपेक्षा से ऐसे मुग्ध स्वभाव वाले जीवों की बात में भी सत्यता है । ऐसा वे नहीं कर सकते क्योंकि परीक्षा करने की रीति से ही वे अनभिज्ञ हैं ।
ईश्वर की परीक्षा करने का अर्थ यह नहीं है कि यह ईश्वर का अनादर अपमान है । नहीं, ऐसी बात नहीं है । इस जगत में ईश्वर विषयक अनेक भिन्न भिन्न प्रकार की मान्यताएँ प्रवर्तित हैं, अनेक भगवान हैं, तो फिर किस भगवान को सच्चे भगवान मानें ? किस ईश्वर का स्वीकार करें ? अनेक और नाना प्रकार के भगवानों में से एक ही भगवान को स्वीकार करना हो मानना हो तब क्या किया जाए ? ऐसी स्थिति में ईश्वर की परीक्षा करना नितान्त आवश्यक हो जाता
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है ।
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'श्रीमान् ! सभी भगवान एक हैं' - ऐसे उत्तर देने वालों का भी तो अभाव नहीं है । तब क्या किया जाए ? सभी भगवान एक ही है न ? नाम, रूप आदि भिन्न भिन्न हैं बाकी बात तो एक ही है न ? चाहे जिस भगवान को मानो पर अन्ततः तो एक ही मान्यता है न ? क्यों जी । स्पष्ट ही कहा गया है न कि आकाशात् पतितं तोयं यथा गच्छति सागरे । सर्वदेवनमस्कारो केशवं प्रति गच्छति ॥
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