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भवसागर से पार नहीं उतर सके । यह भव उसका स्पष्ट प्रमाण हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि ऐसे तो कितने ही भवों में अनेक भगवानों को हमने नमन किया, उन्हें माना, उनकी पूजा - आराधना - उपासना की, परन्तु कुछ भी लाभ नहीं हुआ । इस भव में पुनः कदाचित् ऐसी ही भूल न हो जाए इसके लिये हमें पूर्णतः सतर्क रहना होगा । हमारी सतर्कता का तात्पर्य यही है कि अब हम चाहे जिसे और जहाँ तहाँ भगवान मानकर अपना सिर न झुका दें, क्यों कि अपना मस्तक कोई दो - पाँच रुपयों के मूल्य का फोड़ने योग्य नारियल नहीं हैं कि हम कहीं भी और किसी के सम्मुख झुका दें।
पूर्णतः परीक्षा करके ही नमन करें :
नमन करना है यह बात सच्ची है । एक बार नहीं, सौ बार, नहीं - हजार बार - असंख्य - अनंत बार नमन करना हैं, इसमें जरा भी शंका नहीं है, परन्तु. जिसे नमस्कार करने से हमारी भववृद्धि होती हो, जिसके नमन, पूजन, मनन, वन्दन से हमारे भव भ्रमणों की संख्या में अभिवृद्धि होती हो, हमारे नमन करने पर भी कोई कल्याणकारी परिणाम न आता हो, तो फिर ऐसे को नमन करने का क्या प्रयोजन ? ऐसे को वन्दन करना सर्वथा अर्थविहीन है ।
हमारी ओर से किये जाने वाले नमस्कार में जरा सी भी क्षति रह जाए तो उसको हम तत्काल सुधार कर सकते हैं । यह छोटी सी भूल है, जो एक - दो दिन में सुधर सकती है । इस प्रकार नहीं - बल्कि इस प्रकार नमस्कार किया जाता है। 'खमासमणा इस प्रकार दो' - आदि क्रियात्मक भूलें तो बहुत ही जल्दी सुधर जाएँगी, परन्तु मनोगत मान्यता की भूलों को सुधारने में तो निश्चित् रुप से अधिक समय लगेगा । ऐसी भूल बड़ी भयंकर होती है, परन्तु यदि भगवान की
ओर से ही भूल होगी तो वह कैसे सुधरेगी ? भगवान की ओर से भूल का तात्पर्य है कि या तो वे भगवान सच्चे अर्थ में भगवान ही न हो, फिर भी भगवान की तरह मान्य हैं, पूजित हैं और उन्हें मानने का व्यवहार प्रचलित है तो फिर वह भूल कैसे सुधर सकती है ? अथवा हम तो भगवान समझ कर उन्हें मानते ही जा रहे हैं।
और वास्तव में वे भगवान ही न हो, अथवा हम जिन्हें मानते - पूजते चले आ रहे हैं उन भगवान का स्वरुप विकृत हो तो क्या किया जाए ? ऐसी भगवान विषयक भूल हम कैसे सुधार पाएँगे ? यह कार्य तो अत्यन्त कठिन है ।
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