________________
से दो और आधा इस प्रकार ढाई द्वीप क्षेत्र ही मानव के लिये गिना जाता है। यह ढाई द्वीप ४५ लाख योजन परिमित क्षेत्र है जिसमें वर्तमान समग्र संसार समा जाता है। इस ढाई द्वीप में ५ भरत क्षेत्र, ५ ऐरावत क्षेत्र, और ५ महाविदेह क्षेत्र है। इस तरह कुल मिलाकर १५ कर्मभूमियां है। तथा ३० अकर्मभूमियां और ५६ अंतर्वीप आदि कुल मिलाकर १०१ मनुष्यों को जन्म लेने के क्षेत्र हैं।
नीचे के अर्थात् अधोलोक के ७ राजलोक नरक गति के नारकी जीवों के रहने के लिए नरक पृथ्वियां हैं। इन ७ नरक पृथ्वियों में नारकी जीव उत्पन्न होते हैं और मरते हैं। अपने अपने कृत कर्मानुसार जीव चारों गतियों में जाते हैं। स्वकर्मानुसार गति - आगति - “ईश्वर प्रेरितो गच्छेत्” की बात को जैन दर्शन नहीं स्वीकारता है। जीव स्वंय जैसे शुभ-अशुभ कर्म उपार्जन करता है, वे कर्म अदृष्ट रुप से निर्माण होता है और सभी जीव अपने-अपने किये हुए कर्मानुसार गति को प्राप्त करता है। जिस प्रकार के शुभ पुण्य कर्म जीवने उपार्जन किये हो तदनुसार उसके विपाक के रुप में सुख भी जीव स्वयं ही प्राप्त करता है। तथा जिस जीव ने जिस प्रकार की पाप प्रवृतियां करके अशुभ पाप कर्म उपार्जन किये हो उसके विपाक (फल) के रुप में दुःख भी जीव स्वयं प्राप्त करता है। इसमें अन्य दर्शनों की तरह फल दाता के रुप में ईश्वर को जैन दर्शन बीच में नहीं लाता है। सचमुच जरुर ही नहीं है। इस संसार में जीव भी कर्माधीन स्थिति में काल तत्त्व के साथ जुड़ा हुआ है। कर्म कालिक है। इसीलिए कर्म नीयत काल में बंधते हैं। नीयत काल तक जीव के साथ बंध स्थिति में बंधे रहते हैं। तथा निश्चित समय पर ही उदय में आते हैं। कर्मों के उदय में आने पर जीव स्वयं सुख-दुःख प्राप्त करता रहता है। अतः ईश्वर के हाथों को जीव को सुख-दुःख देने के रुप में रंगने की आवश्यकता ही क्या है ?
इस तरह जैन धर्म के अनुसार समस्त सृष्टि लोक-अलोक प्रमाण है। अनन्त अलोक. में १४ राजलोक परिमित लोक क्षेत्र है। बस, इसी में जीव-अजीव दोनों द्रव्यों का अस्तित्व है। कर्म प्रवृत्त जीव अजीव के साथ संयोग में आता है और फिर शुभ-अशुभ का चक्र शुरु होता है। कालान्तर में एक-एक कर्म अपनी कालावधि समाप्त होने पर वियोग भी पाता है। यदि समस्त कर्मों का सर्वथा वियोग हो जाय तो मोक्ष हो जाता है। जीव निर्मित यह संसार जीव के अपने कर्मानुसार ही चलता है। इसमें ईश्वर के कर्तृच की कोई आवश्यकता जैन धर्म नहीं स्वीकारता है।
जैन धर्म-दर्शन में कर्मवाद की अद्भुत सचोट व्यवस्था है। इसी कारण जैन धर्मने ईश्वर कर्तृत्ववाद नहीं स्वीकारा है। अतः स्पष्ट सत्य है कि यह संसार ईश्वर निर्मित नहीं है। ईश्वरकृत मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं है। यह संसार जीव-अजीव का संयोग-वियोगात्मक स्वरुप है। अतः संसार भी अनादि - अनन्त कालीन शाश्वत है। अतः न तो संसार की उत्पत्ति है और न ही महाप्रलय संभव है। जगत् की त्रैकालिक सत्ता है। जब उत्पत्ति - नाश होता तो सादि-सान्त होता। लेकिन समग्र लोक-अलोक तथा उसके घटक भूत द्रव्य जीव-अजीव आदि अनुत्पन्न-अविनाशी अनादि-अनन्त है। इस तरह यहां सब पक्षों की स्पष्ट मान्यता प्रस्तुत की है। बस, इस से स्पष्ट सत्य को स्वीकार करके सम्यग् दृष्टि बनीए.... यही अन्तर की अभिलाषा है। (ईश्वर के स्वरुप की समीक्षा आगे करेंगे)
200