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पंचेन्द्रिय
तिर्यंच
नारक
मनुष्य
देवता
जलचर स्थलचर खेचर इसी प्रकार संक्षेप से संसारी जीवों का विभाजन किया गया है । इस प्रकार जीव एक के बाद दूसरी योनि में उत्पन्न होते जाते हैं, जन्म-मरण होते रहते हैं । चतुर्गतियों और पाँचों जातियों में जीव अविरतपने से परिभ्रमण करते ही रहते हैं - और इसी का नाम हैं संसार । यह जैविक सृष्टि है । जीव द्वार स्वरचित स्वयं के शरीरों के अनुसार उनके पर्यायों से उसकी पहचान होती है । फिर ईश्वर को बलात बीच में लाने की आवश्यकता ही कहाँ रहती है । ईश्वर के रचना करने की कौनसी इकाई शेष रह जाती है ? जीव स्वयं ही सब कुछ अपने लिये बना लेता है तो फिर ईश्वर के जिम्मे क्या रह जाता है ? अर्थात कुछ भी नहीं रहता।
जीव ही यदि कर्ता है तब तो जीव को ही ईश्वर मानना पडेगा ? ईश्वर को निष्प्रयोजन-निरर्थक मानना होगा, क्योंकि एकेन्द्रिय से लगाकर पंचेन्द्रिय तक सर्वत्र जीव हैं, सूक्ष्म से लगाकर स्थूल तक सर्वत्र जीवों का अस्तित्व है । पृथ्वी - पानी से जीव सृष्टि आगे बढ़ती है जो अन्ततः मनुष्यों और स्वर्ग के देवताओं तक है । फिर तो जीव की स्वनिर्मित सृष्टि ही बड़ी विशाल सृष्टि हो गई । ईश्वर के जिम्मे फिर रचना करने हेतु क्या बचा ? और जब ईश्वर के लिये सचना करने का कुछ भी शेष न रहा तो फिर ईश्वर के नाम पर सष्टि को तिराना अर्थात पत्थर पर व्यक्ति को तैराने जैसी हास्यास्पद वात होगी । ईश्वर का तो फिर कोई कार्य ही नहीं रहा । यह बात निर्विवाद है कि समग्र जगत में जो कुछ बी है वह जीव की सृष्टि है, जीव ने स्वकर्मयोग से पुद्गल अजीव पदार्थ के साथ संयोग-वियोग करके अपनी सृष्टि बनाई है, स्व संसार की रचना की है । इस प्रकार प्रत्येक जीव को व्यक्तिगत रुप से स्वतंत्र गिनें और फिर सभी जीवों का पिंड भाव गिनें तो उसमें समस्त ब्रह्मांड का समावेश हो जाता है । बस, यही सत्य है, यही वास्तविक स्थिति है। अतः इस सृष्टि को ईश्वर द्वारा रचित मानने की आवश्यकता ही नहीं रहती।
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