SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 219
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार सभी द्रव्यों का विभाजन एक मात्र जड़ और चेतन इन दो भागों में होता है और फिर इन दोनों ही जड व चेतन पदार्थों के संयोग वियोग होते रहते हैं । जीव जब जड़ पदार्थ का स्वेच्छा से स्व.प्रवृत्ति से संयोग करेगा तभी स्वयं ही अपने ही तरीके से स्वेच्छिक सब कुछ बनाएगा और इस प्रक्रिया में जड़ पुद्गल पदार्थ के परमाणुओं अथवा स्कंधो आदि का सहयोग लेकर बनाएगा और मृत्यु हो जाने पर उसी के द्वारा निर्मित पदार्थों का वियोग हो जाएगा - वे पदार्थ यहीं पड़े रहेंगे और दूसरे जीव उसका उपयोग करेंगे, वह भी जड़ पौद्गलिक रुप में । इस प्रकार अनंत जीव हैं । पृथ्वी-पानी-अग्नि-वायु से लगाकर मनुष्य और देवता तक सभी में जीव मान लें तो फिर ईश्वर को कर्ता के रुप में घसीट लाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? जैसा कि मनुस्मृति में लिखा है वैसे ईश्वर को जीवों की यह सृष्टि बनाने की और प्रत्येक योनि के जीवों को ईश्वर के बनाने की आवश्यकता ही नहीं है । जैन दर्शन कहता है कि जीव स्वयं ही स्वोपार्जित कर्मानुसार गति, जाति, योनि आदि धारण करता है । इस में ईश्वर को कारण नहीं मानना । जीव स्वयं ही अपना कारण है । इस प्रकार सभी जीवों की सृष्टि इस प्रकार है । (जीव विचार में निर्देशित जीवों का वर्गीकरण . संसारी जीव त्रस .. स्थावर । । । पृथ्वीकाय अप्काय अग्निकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय विलकेन्द्रिय सकलेन्द्रिय द्विन्द्रिय त्रिइन्द्रिय चतुरिन्द्रिय 197
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy