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वैसा ही प्रतिबिंब दर्पण में पड़ेगा उसी प्रकार ईश्वर में जो जो क्रियाएँ होगी उन्हीं प्रश्न यह उठता है कि प्रत्येक कठपुतली रुप जीव के पीछे कितने ईश्वरों को अथवा कितने रुप में ईश्वर को सतत उपस्थित रहना पड़ेगा ?यदि ईश्वर जीवों के पीछे ही सतत रुका रहेगा तो सृष्टि की अन्य व्यवस्था कैसे सम्हाल पाएगा ? पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, आदि के सहस्रो कार्य करने का उत्तरदायित्व तो ईश्वर का ही रहेगा न ?
तब प्रश्न यह उठता है कि यह सब कुछ ईश्वर क्यों करता है ? निरर्थक द्रविड प्राणायाम करने का अर्थ क्या ? जैसे मकड़ी स्वयं ही जाल बुनती है और स्वयं उसमें फँस जाती है, उसी तरह ईश्वर को भी ऐसा ही कुछ हो गया हो - ऐसा लगता है । ईश्वर स्वयं सृष्टि बनाता है और स्वयं ही इस सृष्टि में, सृष्टि की व्यवस्था में, सृष्टि के कार्यों में ही पुनः फँस जाता है, उलझ जाता है । तो क्या ईश्वर की इच्छा दुःखदायी नहीं है ? ऐसा मिथ्याभूत जगत ईश्वर क्यों बनाता है ?
ये सभी प्रकार के विचार करके ईश्वर के स्वरुप को विकृत बनाने की अपेक्षा तो सीधा और सरल उपाय एक ही है कि जीव को ही अपने शरीर संसारादि का कर्ता क्यों न मान लें ? जन्म लेना-मरना एक गति से दूसरी गति में आना, जन्म धारण करना आदि अनंत काल तक भी जीव जो कुछ भी करता है वह सब जीव स्वंय ही करता है । जीव स्वयं ही स्वयं के शुभाशुभ कर्मानुसार करता है, स्वयं को ही करना है और फल भी स्वयं को ही भोगना है तो फिर ईश्वर को बीच में लाने का प्रश्न ही कहाँ उठता है ? ऐसा जैन दर्शन का कथन है । अतः यह सत्य वस्तु स्थिति स्वीकार कर लेने से निरर्थक ईश्वर के सिर होने वाले दोषारोपण से बच जाएँगे।
कर्मों के कारण जीव सृष्टि :
जैन दर्शन समस्त लोक-ब्रह्मांड की समग्र सृष्टि को कर्मसंयोग का फल मानता है । समग्र लोक में मूलतः दो ही द्रव्यों का अस्तित्व है ।
मूल द्रव्य - २
जीव
अजीव
धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय,
कालं, पुदगलास्तिकाय
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