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करते गए परन्तु जैन दर्शन को अब किसी प्रकार की शोध करने की रहती ही नहीं हैं, क्यों कि अनंत केवलज्ञानी सर्वज्ञ भगवंतो ने सभी प्रकार की शोध करके जगत के समक्ष रख दी हैं । अब कोई नवीन शोध करना शेष ही नहीं रहा है। _ 'वण-गंध-रसा फासा-पुग्गलाणं तु लक्खणं ।' वर्ण-गंध-रस और स्पर्शात्मक जो भी है वह पुद्गल है । जिन जिन पदार्थों में रुप-रस-गंध और स्पर्शादि हो वे सभी पुद्गल हैं । रुप-रंग वाले ही रुपी पदार्थ कहलाते हैं । उनमें रंग होने से वे दृष्टिगोचर होते हैं, परन्तु आत्मा, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय आदि में रुप-रंग कुछ भी नहीं होता है । अतः ये सभी अरुपी-अदृश्य, मूर्त हैं अतः हम इन्हें कैसे देख सकेंगे ? अर्थात इनका दिखाई देना असंभव है - अशक्य हैं ।
तो क्या जो दिखाई न दे उसे न मानें ? नहीं - इस संबंध में नियम क्या है ? वस्तु को किस प्रकार और किस कारण से मानने की है ? वस्तु है अतः मानी जाए अथवा वस्तु दिखाई देती है अतः मानें ? वस्तु दिखाई पड़े तभी हम उसे माने - ऐसा नियम नहीं चल सकता । परमाणु अथवा हवा अथवा ध्वनि आदि अनेक पदार्थ होने पर भी दिखाई नहीं देते, तो क्या इन्हें हम न मानें ? क्या इनका अस्तित्व हम स्वीकार न करें । वास्तव में ये दिखाई न देने पर भी अस्तित्व में हैं अतः हमें इन्हें मानना ही है । इस नियम पर चलना उचित है । दिखाई देना - यह वस्तुका गुण धर्म नहीं है । वस्तु अपने गुणों के कारण अपना अस्तित्व रखती है और व्यवहार में गम्य-ग्राह्य बनती है । धर्मास्तिकायादि पदार्थों को उनके गुणाधार पर माना जाता
है।
चलण सहावो धम्मो, थिर संठाणो अहम्मो य ॥
अवगाहो आगासं, पुग्गल जीवाण.. ॥ गति सहायक स्वभाववाला धर्मास्तिकाय, स्थिति सहायक गुणवाला अधर्मास्तिकाय और पुद्गल तथा जीवों को अवकाश देने वाला आकाशस्तिकाय ये सभी पदार्थ हैं । इस प्रकार सभी गुणों से युक्त स्वतंत्र द्रव्य अपना अस्तित्व रखते हैं । ये अपने अपने गुणों के आधारपर ही ग्राह्य बनते हैं । ये दृष्टिगोचर नहीं होते क्यों कि ये दृष्टि आदि से ग्राह्य नहीं हैं । इन्द्रियों से ग्राह्य पदार्थ तो पुदगलों से निर्मित पौद्गलिक पदार्थ होते हैं जिनके गुण-रुप-रस-गंध-स्पर्शादि होते हैं । लालहरे, पीले, काले, सुगंधित, दुर्गंधमय, शीत, ऊष्ण, हल्के-भारी, शब्द,ध्वनि आदि गुण वाले पौद्गलिक पदार्थ ही इन्द्रिय -ग्राह्य होते हैं, क्यों कि इन्द्रियों में इन्हें ग्रहण
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