SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 209
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्याप्त है और यह भी अखंड द्रव्य है। वह जीव और पुद्गल पदार्थों की स्थिति में सहायक बनता है । यदि गति करने वाले पदार्थ गति ही करते रहें और सकें ही नहीं तो कैसी स्थिति हो जाए? जैसे एक गाड़ी यदि गति ही करती जाय - चलती ही रहे और कहीं भी रुके ही नहीं तो परिणाम क्या आएगा ? अतः समस्त लोक व्याप्त यह द्रव्य पदार्थों को स्थिर होने में - रुकने में उपयोगी बनता है । यह भी अरुपी अदृश्य है । इसे Medium of rest या Fulerum of rest कहते हैं । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय नामक दोनों ही पदार्थ स्वयं न तो चलते हैं न स्वयं रुकते हैं, परन्तु ये गति करने वाले को गति करने में और रुकनेवाले को रुकने - स्थिर होने में मात्र सहायक बनते हैं। जिस प्रकार मछली में स्वयं चलने की योग्यता है फिर भी वह पानी की सहायता के बिना चल नहीं सकती उसे पानी की सहायता लेनी ही पड़ती है उसी प्रकारसे गतिशील पदार्थों को गति और स्थिति में इन दोनों ही पदार्थों की सहायता लेनी ही पड़ती है । गति-स्थिति सहायकता इन दोनों ही पदार्थों का गुण है स्वभाव है। आकाशास्तिकाय - "अवगाहो आगासं” अवकाश की जगह जो दे सके उसे आकाश कहते हैं। इसीलिये स्पष्ट रुप से कहा जाता है को 'A आकाशास्तिकाय space is a space which gives us place' 371T9T उसे ही कहते हैं जो हमें जगह दे, प्रवेश दे । यदि आकाश न हो तो हमें कहीं भी प्रवेश ही न मिले । किसी मकान में हमने प्रवेश किया, परन्तु वहाँ स्थान था तो प्रवेश संभव हो गया । इसी प्रकार समग्र लोक-परलोक रुपी अनंत ब्रह्मांड में अनंत आकाश है । आकाश को अलोक की अपेक्षा से अनंत कहा गया है, क्यों कि उसका कभी भी - कहीं भी अंत ही नहीं है । जबकि लोकाकाश कहते हैं और लोक बाह्य आकाश तो अलोक में ही हैं । बाह्य अलोक में मात्र आकाश के सिवाय अन्य कुछ भी नहीं है । इसीलिय उसे शून्याकाश ० एक शून्य की भाँति रिक्त स्थान कह सकते हैं वहाँ धर्मास्तिकाय -अधर्मास्तिकाय जैसे पदार्थों का सर्वथा अभाव है अतः कोई भी जीव अथवा जड़ गति आदि करके वहाँ नहीं जा सकता। बाकी लोकाकाश और अलोकाकाश दोनों ही समान द्रव्य हैं क्यों कि दोनों मिलकर 187
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy