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में ‘उत्पाद - व्यय - ध्रोव्य युक्तं सत्' के नियमानुसार उत्पन्न होना, नष्ट होना और नित्य रहना - ये तीन अवस्थाएँ विद्यमान हैं । मूलभूत द्रव्य अपने द्रव्य स्वभाव के कारण सदाकाल नित्य (ध्रुव) रहने वाला है, जब कि पर्याय अवस्था उत्पन्न - नष्टशील है । आकृतियाँ बदलती रहती हैं । आकृतियाँ बनती है और बदलती रहती हैं । उदाहरणार्थ - सोना मूल द्रव्य है, सोने के रुप में यह नित्य रहने वाला है, जब कि आभूषण के रुप में यह परिवर्तनशील है । पर्याय-आकृतियाँ बदलती रहती हैं, बदलती रहेगी। आज जो कंगन के रुप में है, कल वही पसंद न आने पर तोड़ा जा सकता है और उसमें से अंगूठी आदि अन्य आभूषण बनाए जा सकते हैं । इस प्रकार कंगन के आकार-पर्याय में वह उत्पन्न हुआ और उसी का व्यय नाश होने पर अंगूठी आदि अन्य आभूषण के आकार में उसकी उत्पत्ति हुई इस प्रकार उत्पाद व्यय पर्यायकार में बदलते ही रहते हैं, जब कि द्रव्य सदैव नित्य स्वरुप में ही रहता
है।
छ द्रव्य
जीव धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय काल पुद्गल
इन छह द्रव्यों को जीव-अजीव नामक दो भागों में बाँट सकते हैं ।
मूलभूत दो द्रव्य
जीव (चेतन-आत्मा) अजीव(अचेतन)
| . . धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय आकाशास्तिकाय काल पुदगल
एक जीव-चेतन स्वरुप द्रव्य है । चेतनाशक्तियुक्त पदार्थ को आत्मा कहते हैं । जीव-चेतन-आत्मा मात्र पर्यायवाची शब्द हैं, पर बात एक ही है । इस एक चेतन - आत्मा के सिवाय सभी अजीव हैं - अचेतन हैं - जड़ हैं ।
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