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सीधा सा उत्तर है कि यह सब सर्वज्ञ वीतराग भगवंत ने ही कहा है । उनके सिवाय अन्य कौन है जो ये तथ्य बता सके ? इसका कारण यह है कि “है"-यह कहने के लिये भी देखना और जानना पड़ता है और 'नहीं है' यह कहने के लिये भी देखना
और जानना पड़ता है। बिना देखें या बिना जाने कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। नीचे भूमिगृह में से एक गिलास लाने के लिए माँ ने अपने पुत्र को कहा । पुत्र एक मिनिट में बाहर जाकर तुरन्त लौटकर माँ से कहता है -'मम्मी ! गिलास तो नहीं है । माँ सोच में पड़ गई क्यों कि उसे तो पता है कि स्टिल का नया गिलास वहाँ पड़ा है, फिर भी यह मना क्यों करता है ? पुनः पूछा - 'क्या तू देखने के बाद मना कर रहा है ? या तू बिना देखे ही मना कर रहा है ?' पुत्र ने उत्तर दिया - 'मम्मी! नीचे तो अंधेरा हैं, अँधेरे में जाने से मुझे भय लगता है अतः मैने तो बिना देखे ही गिलास न होने की बात कही है । माँ कब संतुष्ट होने वाली थी ? अपने पुत्र को वह भूमिगृह में ले गई, लाईट करके उसे गिलास दिखाया और बाहर ले आई। बात स्पष्ट है कि बिना देखे ही मना नहीं करनी चाहिये ।
... इसी प्रकार विचार करो कि अलोक में क्या है और क्या नहीं है ? मात्र आकाश है, इसके सिवाय जीव, जड़ आदि कुछ भी नहीं है - यह किसने कहा है? उत्तर स्पष्ट है कि सर्वज्ञ, अनंतज्ञानी प्रभु ने अपने अनंत ज्ञान-दर्शन से देखा और जाना और फिर वीतराग भाव से जैसा देखा और जैसा जाना वैसा ही जगत के समक्ष प्रस्तुत किया है, जगत को बताया है । उन्होंने देखा कि अनंत अलोक में मात्र आकाश है । उन्होंने ही ज्ञान से जाना कि वहाँ आकाश के सिवाय जीव या जड़ आदि कुछ भी नहीं है । परन्तु यह सब देखने व जानने के लिये भगवान को वहाँ जाना नहीं पड़ा था । उन्होंने यह सब स्व ज्ञान से देखा और जाना है । यह देह से व्यापक नहीं बल्कि ज्ञान से व्यापक है ।
चौदह राजलोक :
मानो कोई स्त्री पानी भरने के लिए कुएँ अथवा तालाब पर गई हो और पानी का मटका सिर पर रखकर संतुलन बनाए रखने के लिये दोनों हाथ कमर पर रखकर खड़ी है वैसा यह लोक हैं । हिन्दू ग्रंथों की सृष्टि संबंधी मान्यता की तरह सोने का अंडा फूटा और उसके दो भाग करके ऊर्ध्वलोक- अधोलोक बनाए - ऐसी बात जैन दर्शन में नहीं है । यह लोक स्वरुप संसार - जगत अथवा ब्रह्मांड इसी
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