________________
स्वरुप यहाँ प्रसंगवशात् सोचें
अनंत अलोक (Jain Cosmological thoughts )
-
-
चौदह राजलोक में व्याप्त लोक क्षेत्र के बाहर चारों ओर अनंत अलोक है । लोक अर्थात् वह क्षेत्र जिसमें बस्ती हो । जीव एवं पदार्थों का आश्रय क्षेत्र लोक कहलाता है । इसके बाहर चारों तरफ अलोक है । जैसे एक वृत्त खींचा हो और मध्य में उसका केन्द्र मात्र दिखता हो और केन्द्र से परिधि तक जाने में अनंत काल लगता है वैसा अनंत यह अलोक है । इस अलोक में मात्र आकाश ही है जिसे शून्याकाश
कहते हैं । जीव या लोक अथवा अजीवादि अन्य पदार्थों में से वहाँ एक भी नहीं
1
हैं । अलोक का कोई छोर नहीं, कोई परिधि नहीं है । उसका अंत नहीं है अतः अनंत कहलाता है । चारों अथवा दशों ही दिशाओं में सर्वत्र जिसका अंत नहीं है - छोर नहीं है ऐसा अनंत अलोक है । वहाँ और कुछ भी नहीं है । मात्र आकाश है । उसका अलोक शब्द के साथ संयोजन करने से वह अलोकाकाश कहलाता है ।
R
उस अनंत अलोक के मध्य जो केन्द्र है उसे यदि कुछ बृहत् कर देखें तो वह पुरुषाकार दृष्टिगोचर होता है। इसे लोकपुरुष कहते हैं । इसकी आकृति पुरुष के समान दिखाई देती है, अतः यह लोकपुरुष के नाम से जाना जाता है । जैसा कि चित्र में दर्शित है । एक मनुष्य अपने दोनों पाँव चौड़े करके संतुलन बनाए रखने के लिये दोनों हाथ कटि-स्थल पर व्यवस्थित कर स्थिर खड़ा हो वैसा यह लोक है । इसे लोकप्रकाश ग्रंथ में वैशाखविष्कंभ आकार कहते हैं । जितना पुरुषाकार क्षेत्र है उतना ही लोक क्षेत्र है । अनंत अलोक के मध्य तो मात्र १४ राजलोक परिमित क्षेत्र ही है । जीव- अजीव की सृष्टि का तो मात्र इस लोकक्षेत्र में ही अस्तित्व है। उससे परे अलोक में कुछ भी नहीं है ।
·
अलोक में क्या है ? और क्या नहीं है ? यह भी किसने कहा है ? इसका
180