________________
तीर्थंकर, अरिहंत भगवान, आदि नामों से सादर संबोधित किया जाता है । इसीलिये भगवान ज्ञाता दृष्टा है । जैसा जगत है, जैसा संसार उन्होंने अनंत ज्ञान-दर्शन के योग से देखा है और जाना है उसे उसी और वैसे ही स्वरुप में वीतराग भाव से जगत के समक्ष प्रस्तुत किया है।
बनाया ? या बताया ?
- किसी व्यक्ति के बूट राजप्रासाद में खो गए । संध्या समय ढूँढते ढूँढते अँधेरा छा गया । बाह्य अपरिचित इस व्यक्ति के राजप्रासाद में प्रकाश की व्यवस्था संबंधी स्थल का कुछ भी ज्ञान नहीं था, अतः वह परेशान होकर सोचने लगा कि क्या किया जाय ? इतने में राजप्रासाद से परिचित कोई सज्जन आते हैं और पूछते हैं - "भाई! क्या हो गया ? उस व्यक्ति ने वस्तुस्थिति का वर्णन किया । आगन्तुक राजप्रासाद से परिचित व्यक्ति उस नवागन्तुक को नीचे की ओर ले गया और बटन दबाकर तत्काल प्रकाश किया और उसके बूट उसे दिखाई दिए और कहा - देखो! रहे तुम्हारे बूट-पहन लो । यह कोई कहानी नहीं है।"
__ परन्तु इस पर इतना विचार करो कि इसमें राजप्रासाद से परिचित उस व्यक्ति ने क्या किया ? बूट बनाए या बताए ? प्रकाश, नीचे का स्थल आदि बनाए या बताए ? इसमें बनाने की तो बात ही कहाँ पैदा होती है ? जो था और जहाँ था वह बता दिया, अतः जैन स्पष्ट रुप से कहते हैं कि इस जगत में जो कुछ भी है वह सब जीव-अजीव के संयोग वियोग की सृष्टि है । इसमें परमेश्वर या ईश्वर या अन्य किसीको कुछ भी बनाना नहीं पड़ता है। ईश्वर तो मात्र ज्ञानयोग से जगत का परिचय करवा देते हैं, वह मात्र दिखाने वाला है - ज्ञाता - दृष्टा भाव से है। ऐसे अनंतज्ञानी सर्वज्ञ भगवंत ने इस ब्रह्मांड में - लोकालोकरुप समस्त जगत में क्या क्या है ? कहाँ क्या है और कहाँ क्या नहीं है ? कहाँ वस्तु किस स्वरुप में है ? उसका कैसा स्वभाव है ? जीव किस किस पर्याय में हैं ? अजीव पदार्थ कैसे स्वरुप में है और इस समस्त लोकाकाश में परिणमन और परिवर्तन किस प्रकार होते हैं ? जीव-अजीव पदार्थों के स्वभाव कैसे हैं ? उनका संयोग-वियोग आदि किस प्रकार, कब और कैसे होता है ? अवस्थाओ पर्यायों में परिवर्तन किस किस प्रकार से होते हैं ? आदि अनेक बातें अपने अनंतज्ञान-दर्शन के योग से जानी और देखी हैं उनका वैसा ही वर्णन अपने वीतराग भाव से कर दिखाया है । इसका कुछ संक्षिप्त
179