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________________ प्रयोजन?' उसे मानने की कहाँ आवश्यकता है ? इस प्रकार स्पष्ट शब्दों में मीमांसक ईश्वर का खंडन करते हैं । हरिभद्रसूरी महाराज “षड्दर्शन समुच्चय” में मीमांसको को निरीश्वरवादी बताते हुए लिखते हैं कि - . जैमिनीयाः पुनः प्राहुः सर्वज्ञादिविशेषणः । देवो न विद्यते कोऽपि यस्य मानं वचो भवत ॥ जैमिनिय मत को माननेवाले मीमांसक स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि सर्वज्ञ, विभु अथवा नित्यादि विशेषणयुक्त कोई देव - ईश्वर कर्तृत्ववाद का विरोध करनेवाले मीमांसक इस अर्थ में शुद्ध रुप से जैनों के समान ही हैं, तब फिर जैनों को नास्तिक और मीमांसको को आस्तिक कहना किस घर का न्याय है ? 'कर्मेति मीमांसकाः' - मीमांसको के विषय में प्रसिद्धि है कि वे कर्मवादी हैं - कर्म को माननेवाले हैं। - इसी प्रकार नैयायिक वैशेषिको का मत भी विचारणीय है । कणादं मतावलम्बी वैशेषिकों की मान्यता भी भिन्न ही है, फिर भी ये सभी आस्तिक कहलाते हैं और जैनों को नास्तिक कहा जाता है - ऐसा क्यों ? या तो स्वयं नास्तिक दृष्टिवाले नास्तिक जैनों की आस्तिकता को समझने में विफल हो रहे हैं अथवा मात्र द्वेषवश जैनों को नास्तिक कहने की धृष्टता कर रहे हैं, परन्तु सोचें तो स्पष्ट हो जाता है कि जैन अनिश्वरवादी नहीं, सेश्वरवादी भी कहे गए हैं, अर्थात् जैन ईश्वर को तो मानते ही हैं, मात्र उसे जगत-कर्ता के अर्थ में नहीं मानते । जैनों के अनुसार ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है, वह तो सर्वज्ञ वीतराग परम शुद्ध परमात्मा है - कर्म रहित हैं। इसीलिये ऐसे सर्वज्ञ परमेश्वर अरिहंत परमात्मा को सृष्टि - रचना की, कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है, क्यों कि सृष्टि तो जड़-चेतन-जीव-अजीव के संयोग-वियोग से सदैव बनती और बदलती रहती है, फिर इसकी रचना का प्रश्न ही कहाँ रहता है ? इस प्रकार जैन दर्शन ईश्वर को भी मानता है और सृष्टि को भी मानता है, दोनों का अस्तित्व स्वीकार करता है परन्तु अपने ही ढंग से शुद्ध-निर्दोष स्वरुप में स्वीकार करता हैं । अतः जैनों को नास्तिक कहने के लिये तिलमात्र भी आधार नहीं रहता। कोई तर्क-युक्ति अथवा बुद्धि जैनों को नास्तिक कहने के लिये नहीं मिलती, अतःअन्त में कह दें कि जैन हमारे वेदों को नहीं मानते, वेदों को गाली देते हैं, श्रुतिप्रमाण नहीं मानते हैं, अतः जैन नास्तिक हैं यह कैसा न्याय हैं ? यह बात तो ऐसी हुई कि कोई दुकानदार ग्राहक को कहे कि मेरे वचन पर 174
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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