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________________ विश्वास रखो कि यह सोना है, तू इसे खरीद ले । तब ग्राहक कहता है कि मैं तुम पर विश्वास क्यों रखू ? मैं तो इसे कसौटी पर कस कर देखूगा । यदि कसौटी की परीक्षा में यह शुद्ध सिद्ध होगा तभी मैं इसे सोने के रुप में स्वीकार करूँगा । ग्राहक के ये शब्द सुनकर यदि व्यापारी ने सोने में मिलावट की होगी तो वह अपनी पोल खुल जाने के भय से क्रुद्ध होगा, और ग्राहक को मूर्ख होना कहेगा । इसी प्रकार जैन दर्शनवादी रुप ग्राहक जब वैदिक विद्यावादी विक्रेता को सत्य की कसोटी पर कसकर शुद्ध सिद्धान्त स्वीकार करने की बात करते हैं तब क्रुद्ध होकर द्वेषबुद्धि से वैदिक जैनों को नास्तिक कहने की उदंडता करते हैं - यह कहां तक उचित है ? क्या इसमें किसी प्रकार की बुद्धिमता दिखती है ? बिल्कुल ही नहीं। . जैन दर्शन ईश्वर का स्वरुप कैसा मानता है ? किस अर्थ में भगवान को मानता है ? कैसे भगवान को ईश्वर मानता है ? इसका विस्तृत तर्कयुक्त बुद्धिगम्य विवेचन हम आगे विस्तार से करेंगे । इस में हम सृष्टिवाद और ईश्वरवाद की वास्तविकता की परीक्षा करेंगे । यहाँ स्थानाभाव से जैन दर्शन को अभिप्रेत सृष्टि क्या है ? कैसी है ? कितनी है ? इसका वर्णन करेंगे । जैन दर्शन मान्य सृष्टि स्वरुपः 'सृष्टि' शब्द ब्रह्मांड, सम्पूर्ण जगत, सम्पूर्ण लोक, अथवा विश्व के लिये प्रयुक्त हुआ हैं । विश्व शब्द सृष्टि के अर्थ में बहुत ही छोटा पड़ता है । जैन दर्शन की प्रथम मान्यता तो स्पष्ट ही है कि भगवान ने सृष्टि बनाई नहीं है बल्कि बताई बनाना और बताना - बनाई और बताई : इन दोनों ही शब्दों में 'न' और 'त' का ही अन्तर है । जैन दर्शन बनाने की मान्यता नही रखता । जैनेतर अन्य दर्शनों में से अनेक ऐसे हैं जो सृष्टि की रचना करने वाले ईश्वर को भगवान मानते हैं, जब कि जैनों की मान्यता भिन्न है। जैन दर्शन तो कहता है कि भगवान, ईश्वर, सर्वज्ञ, परमेश्वर सृष्टि अथवा लोक का रचयिता नहीं है, वह तो मात्र निर्देशक बताने वाला ही है I God is not the Creator of the world not He is the destroyer of the world. 175
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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