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________________ पूना से प्रकाशित संस्था के महोत्सव विशेषांक में 'नास्तिक किंवा अवैदिक दर्शने'नामक लेख में जैन दर्शन को नास्तिक बताया है और वह भी पाणिनी की व्याख्या के आधार पर तथा जैसी उनके मन में आयी वैसी स्वकल्पित कल्पना से निर्लज्ज चेष्टा करते हुए अपने होश हवाश गिरवी रखते हुए लिखा है कि - जैन धर्म में २४ तीर्थंकर भगवान हुए ही नहीं । पार्थ नामक किसी संन्यासी बावे से यह धर्म चला है, और जैन धर्म में कोई पाँच ज्ञान नहीं है, केवलज्ञान जैसी कोई वस्तु नहीं है । सर्वज्ञता का अभाव है और जैन धर्म में ४५ आगम जैसा कुछ भी नहीं है - ऐसी बातें लिखकर जैन दर्शन पर कुठाराघात किया है । इनके इस प्रकार के वर्णन को पढ़ने से तो लगता है कि इन्होने कभी जैन धर्म का अध्ययन भी किया है या नहीं - यही शंका होती है । ४५ आगम आज भी - वर्तमान में भी उपलब्ध हैं, २४ तीर्थंकरों के नाम चरित्र आदि प्राचीन ग्रंथो में सविस्तार उपलब्ध हैं । पाँच ज्ञान आदि पर ही जैन धर्म का आधार स्तम्भ है । सभी बातें दीपक के प्रकाश जैसी स्पष्ट होते हुए भी जैन धर्म पर कीचड़ उछालने की ऐसी कुचेष्टा करके भी ये सज्जन विद्वानों कि श्रेणी में स्थान प्राप्त कर सकें तो कितनी हास्यास्पद स्थिती है । इस जगत का नियम है कि 'पुरुष विश्वासे वचन - विश्वासः' यदि पुरुष में पहले विश्वास आए तो ही बाद में उसके वचन में विश्वास पैदा होता है । यहाँ इस नियम के अनुसार चलें तो ऐसे पुरुष में विश्वास ही नही पैदा होता । तब उसकी बातों पर विश्वास करने का तो कोई प्रश्न ही नहीं रहता है । जैन धर्म और दर्शन लोक-परलोक में श्रद्धा रखता है मृत्यूपरान्त जीव स्वर्गनरकादि परलोक में जाता है - जन्म लेता है, पुनर्जन्म धारण करता है, जीव ने पूर्वजन्म भी अनंत किये स्वयं के द्वारा कृत कार्यों के अनुसार वह कर्म - फल भी पाता है पाप पुण्य जो और जैसे किये हो उनके आधार पर तदनुकूल सुख दुःख के फल भोगता है । जैन स्वयं स्व-पाप कर्मों का प्रक्षालन करने हेतु, उन्हे क्षीण करने हेतु ईश्वर - अरिहंत परमात्मा के सन्मुख दर्शन - पूजन, भक्तिभावमय उपासना प्रार्थनादि सब कुछ करता है, जैन हजारों वर्षों से ये क्रियाएँ करते आए हैं फिर ये नास्तिक कैसे ? __ जैनों को नास्तिक कहने के लिए और कुछ भी आधार न मिला तो मनु के नाम पर शब्द बिठाकर कहने लगे कि 'नास्तिको वेदनिन्दकः' अर्थात् जो वेद की निंदा करते हैं वे नास्तिका । यह तो ऐसी बात हुई कि ... शास्त्रीय व्याख्या अथवा 172
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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