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________________ एकान्तवादिनः दार्शनिका नास्तिकाः " अरिहंत परमात्मा द्वारा उपदिष्ट आगम को ही प्रमाण रुप स्वीकार न करनेवाले आर्हद् आगम का विरोध करनेवाले सभी नास्तिक दर्शन कहलाएँ और इससे आर्हत् - जैन के सिवाय सभी दर्शन नास्तिक कहलाएँगे । यह व्याख्या वैदिक व्याख्या की भाँती स्वमत से बनाई हुई व्याख्या होगी। इस में कुछ भी नहीं परन्तु परस्पर अपना ध्वज उँचा रखकर अन्य को नास्तिक जैसा अपशब्द कहने जैसी बात है और ऐसा करने में कोई औचित्य नहीं है । अपने दर्शन की मान्यता अन्य के सिर पर बलात् मढ़ी नहीं जा सकती । यह आवश्यक नहीं है कि एक दर्शन किसी अन्य दर्शन की विचारधारा या मान्यता को निश्चित् रुप से स्वीकार ही कर ले । वह माने तो ही व आस्तिक और न माने तो नास्तिक - ऐसा कहना मूर्खता पूर्ण होगा । इस प्रकार इस आधार पर तो सभी एक दूसरे को नास्तिक कहेंगे । पाणिनिकृत नास्तिकता की व्याख्या : व्याकरणकार महर्षि पाणिनि ने अपनी व्याकरण रचना में आस्तिक नास्तिक की व्याख्या करते हुए सूत्र बनाया है कि 'अस्ति नास्ति दृष्टि मतिः । जिसकी अस्ति और नास्ति की बुद्धि नहीं वह' । टीकाकार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि 1 “ अस्ति परलोकं इत्येवं मतिर्यस्य स आस्तिकः । तथा नास्ति परलोक इत्येवं मतिर्यस्य स नास्तिकः” अर्थात् परलोक है ऐसी जिसकी बुद्धि है वह आस्तिक है और परलोक नहीं है ऐसी जिसकी बुद्धि है जो परलोक के अस्तित्व को नहीं मानता, वह नास्तिक है । पाणिनि जैसे अधिकृत व्याकरणकार की व्याख्यानुसार जैन नास्तिक कैसे कहे जा सकते हैं ? कर्म, धर्म, पुण्य, पाप, लोक परलोक, आत्मा परमात्मा और बंध - मोक्ष आदि सभी तत्त्वों को स्वीकार करने वाले जैनों को नास्तिक कहने में कहाँ का बुद्धिचातुर्य है ? आकाश में दिन में सूर्य जैसी स्पष्ट बात है कि जैन धर्म - दर्शन लोक-परलोक आदि का जैसा वर्णन करता है वैसा तो कदाचित् इस जगत में कोई भी दर्शनकार सचोट वर्णन का चित्र प्रस्तुत नहीं कर सकेगा । फिर पाणिनि के आधार पर जैन दर्शन को नास्तिक कहने की उद्दंडतापूर्ण चेष्टा करने वाले कितने अज्ञान - बाल जीव होंगे ? आश्चर्य तो इस बात का होता है कि पूना के ओरियन्टल इन्स्टीटयूट के डॉ. पी. एल वैद्य जिन्होने 'वेद शास्त्रोत्तेजक सभा 171 - - -
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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