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है । उनके नाम हैं चार्वाक, माध्यमिक, योगाचारवादी, सौत्रान्तिक, वैभाषिक और
जैन । बौद्ध मत के अवान्तर भेद है । उन्हे पुराने गिने अतः ६ हुए अन्यथा मुख्यतः ४ को नास्तिक बताते हैं । लोकायत चार्वाक, आर्हत-जैन, सौगत-बौद्ध और कपिलमुनिवादी कापालिक - इन चार को ही नास्तिक बताया गया है । जरा बुद्धिपूर्वक सोचो कि चार्वाक और जैन में क्या कुछ भी अंतर नहीं है ? क्या चार्वाक जैसा ही जैन दर्शन है ? चार्वाक नास्तिक तो ईश्वर - आदि कुछ भी मानने वाला नहीं जब कि जैन दर्शन तो ईश्वर को मानता है । माना कि जैन दर्शन ईश्वर को सृष्टि - कर्ता के रुप में नहीं मानता परन्तु शुद्ध कर्म रहितात्मा परमात्मा को ही ईश्वर मानता है और ईश्वर ही नहीं बल्कि परमेश्वर - परमेष्ठि शब्द से ससम्मान संबोधित करता है और दूसरी ओर सृष्टि का अस्तित्व भी स्वीकार करता है । जैन दर्शन ने ईश्वर या सृष्टि दोनो का निषेध नहीं किया है, परन्तु मानने की रीति भिन्न है । जैन दर्शन ने ईश्वर को शुद्ध परमात्मा के स्वरुप में माना है और सृष्टि को जड़ - चेतन के संयोग स्वरुप परिणाम स्वरुप में माना है । सृष्टि को ईश्वर द्वारा निर्मित नहीं माना ईश्वर को जगत का कर्ता नहीं माना - इतने मात्र से क्या जैन नास्तिक हो गए ? क्या यह न्यायसंगत युक्ति है अथवा मुोक्ति है ?
आस्तिक - नास्तिक मानने का आधार :
आस्तिक - नास्तिक की व्याख्याएँ भी अनेक ने अपनी अपनी प्रणाली से की हैं । सर्व दर्शन संग्रह के उपोद्घात में लिखा है कि 'श्रुतिप्रामाण्य - विरोधि नस्तार्किकविशेषाः नास्तिकाः' अर्थात् श्रुति - वेद को प्रमाण न मानने वाले वेद प्रमाण के विरोधी तार्किक नास्तिक कहलाते हैं । इनमें चार्वाक जैन बौद्धादि का समावेश होता है । 'श्रुति प्रामाण्याविरोधिनस्तार्किक विशेषा आस्तिकाः' अर्थात् श्रुति वेद के प्रमाण का विरोध न करने वाले, वेद को ही प्रमाण माननेवाले आस्तिक कहलाते हैं । इस व्याख्या के अनुसार सांख्य, पातंजल, नैयायिक, वैशेषिक आदि आस्तिक दर्शन कहलाते हैं ।
__इस प्रकार अपनी मनगढंत व्याख्या के आधार पर ही यदि किसी को आस्तिक कहना हो, तब तो मात्र वैदिकों को ही दूसरों को नास्तिक कहने का अधिकार क्यों ? इस बात के आधार पर तो जैन भी दूसरों को नास्तिक कह सकते हैं । 'आर्हतागम प्रामाण्यविरोधिनस्तार्किक विशेषाः नास्तिकाः' आर्हतेतर सर्वे
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