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________________ ही मिट जाएगा । अथवा इसका स्वरुप 'इतो भ्रष्टस्ततो भ्रष्ट ' जैसी स्थिती वाला हो जाएगा । इसीलिये ईश्वर और सृष्टि दोनों को अलग अलग स्वतंत्र पदार्थ मानने की सलाह जैन दर्शन देता है । वरना ईश्वर के भोग पर सृष्टि का स्वरुप सम्हालने जाओगे और सृष्टि के भोग पर ईश्वर के स्वरुप की रक्षा करने लगोगे तो रबर खींचने जैसी स्थिती हो जाएगी । ईश्वर के कारण सृष्टि का स्वरुप बिगड़ता है और दूसरी ओर सृष्टि के कारण ईश्वर का स्वरुप विकृत होता है, इसलिये जैन दर्शन ने ईश्वर और सृष्टि दोनों का अलग अलग अस्तित्व माना है । एक दूसरे का एक दूसरे के साथ आधार या संबंध ही नहीं रखा, बल्कि दोनों का स्वतंत्र स्वरुप - अस्तित्व माना है और यही इसकी तार्किक बुद्धि की विशेषता है, गरिमा है । आस्तिक - नास्तिक का आधार : वैदिक दर्शनकारों ने ईश्वर और सृष्टि इन दो पदार्थों पर ही आस्तिकता और नास्तिकता का आधार रखा है पर ऐसा क्यों ? स्वयं की किलेबंदी करने के लिये ईश्वर और सृष्टि के पदार्थों की वाग्जाल की बालू (रेत) की दिवार बनाकर किला बनानेवाले वैदिक दार्शनिकों को इस बात का पता नहीं है कि वे बालू के किले में बैठे हैं और इन दोनों ईश्वर और सृष्टि पदार्थ का ही स्वरुप सिद्ध नहीं होता तो फिर उनका बालू से निर्मित दीवारवाला किला कितना दृढ, अभेद्य अथवा सुरक्षित रह पाएगा? ___ इन्होंने तो मुद्रालेख बना दिया कि ईश्वर को सृष्टि का कर्ता माने वही आस्तिक और न माने वह नास्तिक । ऐसी व्याख्या करके इन्होंने जैन दर्शन को आस्तिकता के क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया परन्तु जैन दर्शन ने इनकी हजारों त्रुटियाँ बताकर इन्हें ही नास्तिक सिद्ध कर दिया है । समझ में नहीं आता वैदिक दर्शनकारों ने जैन दर्शन के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया ? सृष्टि कर्ता ईश्वर को न माननेवाले तो जैनों के अतिरिक्त अन्य भी अनेक दर्शन हैं । मीमांसक कहाँ मानते हैं इस बात को? वे ईश्वर को सृष्टि का रचयिता न मानते हुए भी आस्तिक कहलाते हैं जब कि मात्र जैनों को ही नास्तिक कहा गया है । यह बंदर बाँट जैसी अन्यायपूर्ण बात हुई। वेद और ईश्वर - सृष्टि आदि मानने वाले ही आस्तिक है और इनके सिवाय नास्तिक हैं - ऐसा कहकर सर्वदर्शन संग्रहकार ने - छह दर्शनों को नास्तिक कहा 169
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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