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________________ की किरणों के बिना सूर्य रहा है ? क्या कभी किसी ने प्रकाश रहित सूर्य देखा है ? क्या कभी ऐसा हुआ है कि सूर्य उदित हुआ हो और उसका प्रकाश बिलकुल न हो । क्या आज तक प्रकाशविहीन सूर्य का कभी उदय हुआ है ? नहीं, ऐसा कभी नहीं हुआ तो फिर सृष्टि कार्य करने के धर्म रहित ईश्वर को कैसे माना जाए ? ईश्वर को नित्य कहना है तो उसके साथ सृष्टि रचना का संबंध बलात् जोड़ने की कहीं भी आवश्यकता नहीं रहती क्योंकि सृष्टि के कारण ईश्वर की नित्यता अवरुद्ध हो जाती है, कदम कदम पर आपत्ति का सामना करना पड़ता है । इसीलिये जैन दर्शन कहता है कि ईश्वर और सृष्टि दोनों को अलग अलग स्वतंत्र पदार्थ कर दो। दोनों में कुछ भी संबंध न रखो, दोनों को एक दुसरे का आधार मानने में; परस्पर अन्योन्याश्रित मानने में कई दोष लगते हैं और दोनों का स्वरुप विकृत होता है । सृष्टि के कारण ईश्वर का स्वरुप बिगड़ता है । ईश्वर में सैंकड़ो दोष लगने का भय रहता है और इसी प्रकार ईश्वर को कर्ता और सृष्टि को ईश्वर निर्मित कहने में दोनों की नित्यता में दोष लगता है । 'करना' क्रिया है। सृष्टि करना बनाना यह किसी कर्ता से ही हो सकता है । कोई बनानेवाला ही सृष्टि बना सकता है, उसके बिना सृष्टि संभव नहीं है - ऐसा माननेवाले भी भूल करते हैं । कारण यह है कि करने की क्रिया नित्यता की परिचायिका नहीं है । 'ईश्वर ने सृष्टि रचना की " इस वाक्य में की करने की क्रिया आई अतः सैंकड़ो प्रश्न उपस्थित होंगे, जैसे कब की ? कहाँ की ? कैसे की ? किस पदार्थ या वस्तु की सहायता से की ? अकेले ईश्वर ने 1 की या उसके साथ अनेक ने मिलकर की ? किस में से की ? करने का प्रयोजन क्या था ? यदि की तो स्वेच्छा से की या अनिच्छा से ? किस स्थल पर की ? किसने की ? सुंदर की या कुरुप की ? करने में सहायक कौन थे ? पहले की या बाद में की ? पहले क्या क्या किया और बाद में क्या क्या किया ? की तो कहाँ तक की ? कितने काल तक करते रहे ? बनाने में कितने वर्ष लगे ? आदि क्रिया से संबंधित सैंकड़ो प्रश्न खड़े होंगे जिनका उत्तर देने वाला पक्ष ईश्वर के स्वरुप को ही विकृत कर डालेगा ? - यह करने की क्रिया न तो कृति की और न कर्ता की नित्यता का सूचन करती है, क्योंकि उसके लिये काल आदि का आधार देना पड़ता है । स्थान, क्षेत्र, वस्तु सहायक, समय, संख्या आदि अनेक बिन्दुओं का आधार देना पड़ेगा और ऐसा करने में या तो हाथ में से ईश्वर का स्वरुप लुप्त हो जाएगा या सृष्टि का अस्तित्व 168
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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