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वे अध्याय के १७ वे मंडल के १२९ वे सूत्र में लिखते हैं कि प्रलय - स्थिती वाले जगत का मुल कारण असत् अथवा सत् न था । आकाश, ब्रह्मांड, आवरण, आवरणाधारस्थान, अथवा पानी का भी प्रभाव था । रात्रि - दिन का भी ज्ञान न था, माया सहित एक शुद्ध ब्रह्म था । उत्पत्ति से पूर्व कार्य सत् व्यक्त रुप में नहीं, परन्तु अव्यक्त रुप में था । प्रलय अवस्था में जगत कारणभूत माया से आच्छादित था । ईश्वर के मन में जीवों को उनके पूर्वकृत कर्मों के फलानुसार सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा हुई और उसने सर्व जगत का निर्माण कर डाला। अन्य कल्पो में जीवों के द्वारा कृत पुण्य पाप के आधार पर विचार करके ब्रह्मा ने जगत की रचना की, जैसे सूर्योदय होने पर चारों और किरणें व्याप्त हो जाती है उसी प्रकार एक साथ सृष्टि होती थी और उसमें कर्मकर्ता जीव बीजरूप में था । भोक्ता के रुप में जीव है और भोग्य आकाशादि है । यह सृष्टि रचना एक गूढ विज्ञान है, यह किसी को गम्य नहीं है - ग्राह्य नहीं है । देवतागण भी सृष्टि रचना के बाद हुए हैं अतः उन्हे भी इसका ज्ञान नहीं है । इस प्रकार तैत्तिरीय ब्राह्मणकाण्ड द्वितीय में भी ऐसा ही उल्लेख है ।
ऋग्वेद के ८ वे अध्ययन में सृष्टि विषयक चर्चा करते हुए लिखते हैं कि 'विराट पुरुष भूमि को चारों ओर से घेरकर दशांगुल देश का अतिक्रमण कर व्यवस्थित है जो जगत है, वह था और रहेगा वह सर्व पुरुष है । इस पुरुष के तीन पाद अमृत - अविनाशी हैं और चतुर्थ भाग में त्रिकाल के सभी प्राणी है, भगवान ने माया से विराट रूप बनाकर जीव रुप बनकर उसमें प्रवेश किया। फिर देव - मानवादि भूमि और जीवों के शरीर अनुक्रम से बनाए । तत्पश्चात् देवों ने वसन्त ऋतु को घी के रूप में, ग्रीष्म ऋतु को ईंधन के रुप में और शरद को पुरोडाश के रुप में विकल्पित करके मानस यज्ञ किया । प्रजापति सृष्टि साधन योग्य थे और उनके सहायक देव ऋषियों के रुप में थे । वे यज्ञ करते थे, प्रजापती जब पुरुष का संकल्प करके रचना करता था तब उसके ब्राह्मण मुख, क्षत्रिय - भुजा, वैश्य उर और शूद्र चरणरुप में थे । वे सभी हुतयज्ञ से दहीं, घी, पशु, ऋग, यजु, साम, छंद, गायत्री, गधे, घोड़े, खच्चर, गाय, बकरी और भेड़ उत्पन्न हुए थे । ( ९-१०) प्रजापति के मन से चंद्र आँखो से सूर्य, मुख से इन्द्र, अग्नि प्राण से वायु, नाभी से आकाश, मस्तक से स्वर्ग पाँव से भूमि और कान से दिशाओं की उत्पत्ती हुई । (१३-१४) इस प्रकार पुरुषवाद है ।
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