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से पृथ्वी उत्पन्न हुई । इस प्रकार पंचभूतों का निर्माण हुआ ।
अंडवादी कहते है :- नारायण भगवान परम अव्यक्त हैं, उनमें से व्यक्त अंडा उत्पन्न हुआ । उस अंडे में सात द्वीपवाली पृथ्वी फिर पानी, समुद्र, जरायु, मनुष्यादि तथा पर्वत बने। इनके बाद सात-सात कुल १४ भुवनों का निर्माण हुआ । भगवान उस अंडे में एक वर्ष पर्यन्त रहे और उन्होंने अपने ध्यान से अंडे को दो भागों में विभाजित किया। उस अंडे के ऊर्ध्व भाग से आकाश और अधो भाग से पृथ्वी का निर्माण किया। यह बात अंडवादियों ने अपने अधोलिखित श्लोक में स्पष्ट की है :
नारायणः परोऽव्यक्तादण्डमव्यक्तसंभवम् ।
अण्डस्यान्तस्त्वामी भेदाः सप्तद्वीपा चे मेदिनी ॥
अहेतुवादिओं का भी अपना एक पक्ष है । उनका कथन है कि प्रति समय होने वाले विचित्र भाव बिना किसी कारण ही अर्थात् अहेतु से उत्पन्न होते हैं । आकाशकुसुमवत् भावरहित द्रव्य असंभव है ।
परिणामवादिओं का भी अपना एक पक्ष है । प्रति समय वस्तु में परिणमन होता है, परिणामों मे परिवर्तन होता है । समय समय पर आत्मा के प्रति परिणाम होते है उसी प्रकार सभी भावों - पदार्थों में होता है । इच्छा से कुछ भी नहीं होता क्यों कि इच्छा तो क्रमवर्ती - क्रमभावि है और परिणाम तो सभी पदार्थों में एक साथ
होते रहते है ।
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नियतिवादी अपनी बात 'प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण । इन शब्दों से प्रस्तुत करते हैं । नियति के आश्रय से जो वस्तुएँ प्राप्त करने योग्य है उनके अनुसार शुभ अथवा अशुभ अर्थ जीवों को अवश्य ही प्राप्त होता है । भावी अवश्यंभावी होता है, होनेवाला होकर ही रहता है । भावी कभी नहीं टलता । इसी प्रकार जो नियति में नहीं होता वह कभी भी नहीं होता और जो होने वाला है वह हुए बिना नहीं रहता । इसीलिये जगत में कुछ भी होता है और जो नहीं होता वह सब निय के आधार पर ही होता है ।
भूतवादिओं का भी एक स्वतंत्र पक्ष है । भूतवादिओं के मतानुसार (१) पृथ्वी (२) पानी, (३) अग्नि और (४) वायु चार तत्व है । इन्हीं का समूहात्मक समुदाय शरीर है । उस शरीर की इन्द्रियाँ हैं, विषय संज्ञाएँ है । मदशक्ति की भाँति चैतन्य उत्पन्न होता है, पानी के बुलबूले की तरह जीव है । अचैतन्य विशिष्ट काया है और वही पुरुष है ।
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