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विवर्त कहते हैं । इसी प्रकार ‘ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' ब्रह्म सत् पदार्थ है सत्ता स्वरुप है और यह जगत भ्रमरुप मिथ्या है । वास्तव में कुछ भी नहीं है परन्तु होने का आभास होता है। स्वप्न में जैसे कुछ भी होता ही नहीं हैं फिर भी स्वप्न में सब कुछ दिखाई देता है, उसी प्रकार यह जगत अथवा सृष्टि मिथ्या है मात्र आभास है विवर्तरुप में है । सचमुच में कुछ भी वास्तविकता ही नहीं है, मात्र भाष्यमान है । अतः सृष्टि निर्माण, प्रलय, अनादि-अनंतादि की चर्चा-विचारणा करने का विवर्तवादियों के लिये तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता । यह तो मात्र काल्पनिक हैं भ्रमात्मक है । जिस प्रकार स्वप्न पूर्ण होने पर और आँखे खुलने पर वास्तव में स्वप्न का कुछ भी दिखाई नहीं देता है उसी प्रकार तत्त्वज्ञान के नेत्र खुलने पर यह जगत कुछ भी नहीं, घर-पुत्रपत्नी आदि सब कुछ भी नहीं होने का ज्ञान होता है । अतः विवर्तवादिओं के मतानुसार स्वप्नवत् यह संसार कुछ भी नहीं है । स्वप्न से बढ़कर इसमें कुछ भी न होने से यह मिथ्या है ।
सृष्टि की उत्पत्ति तथा उसकी रचना - कर्ता - काल आदि अनेक अपेक्षाओं से विचार करनेवाले अनेक वादि अनेक मत है । सभी भिन्न भिन्न प्रकार की बातें करते हैं । सबके अलग अलग अपने अपने मत हैं, उनकी स्वयं की अलग अलग विचार धाराएँ हैं, उनमें से कुछ इस प्रकार है ।
सृष्टि वादी :
इच्छन्ति कृत्रिमं सृष्टिवादिनः सर्वमेमिति लोकम् ।
कृत्स्नं लोकं महेश्वरादयः सादिपर्यन्तम् ॥
सृष्टिवादी इस सम्पूर्ण लोक को कृत्रिम मानते हैं । इनमें भी महेश्वरादि से सृष्टि की उत्पत्ति माननेवाले सृष्टिवादी संपूर्ण लोक को आदि - अन्तमय मानते हैं । कई जनों का कथन है कि अभिमानी - अंहकारी ईश्वर से जगत की उत्पत्ति हुई है । कई सोम और अग्नि से जगत की उत्पत्ति मानते हैं और कई संसार को 'षड्द्रव्य' का विकल्परुप मानते हैं । वैशेषिक मत पृथ्वी आदि ९ प्रकार के द्रव्य, शब्दादि २४ गुण, पाँच कर्म, सामान्य दो प्रकार से, समवाय एक, विशेष अनंत - इन षट् पदार्थों को कणाद मुनि मानते हैं और जगत इतना ही है - इसके अलावा और अन्य कुछ भी नहीं है ।
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