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रस, गंध और स्पर्श- ये पंचतन्मात्रां प्रकट होते हैं । बुद्धि, अहंकार और पंचतन्मात्रा ये सातों ही तत्त्व प्रकृति- विकृति सब कुछ है । इन में से आँख, कान, नाक, जीभ और चमड़ी - ये पाँच ज्ञानेन्द्रिय बनती है । तत्पश्चात् वाणी, हाथ आदि पाँच कर्मेंद्रिय और न इस प्रकार कुल ११ विकार बनते है । एक प्रकार से प्रकृति आदि २४ तत्त्व हैं और पच्चीसवाँ तत्त्व पुरुष ही सांख्य मतानुसार भगवान है । वह अमूर्त, चेतन भोगी, नित्य, सर्वगत, सक्रिय, अकर्ता, निर्गुण और सूक्ष्म आत्मा है । इस प्रकार २५ तत्त्वज्ञान विषयक सांख्यमत है । सांख्यमतावलम्बी ईश्वर को जगतकर्ता नहीं मानते हैं । वे इस प्रकार प्रवाह से अनादि अनंत सृष्टि मानते हैं । मीमांसक - मीमांसावादी जैमिनि सृष्टि और वेद दोनों को अनादि अनंत मानते है। मीमांसक सर्वज्ञ पुरुष का ही खंडन करते है अतः ये लोग सर्वज्ञ पुरुष को मानते नहीं हैं । सृष्टि के विषय में मीमांसा दर्शन के भाष्यकार श्रीमत्पार्थ सारथि मिश्र प्रथम अध्याय के प्रथम वाद की व्याख्या में लिखते हैं कि - " न च सर्गादिनां कश्चित् कालोऽस्ति सर्वदा ईद्दशमेव जगदिति दृष्टानुसारादवगन्तुमुचितम् । न तु स कालोभूत् यदा सर्वमिदं नासीदिति प्रमाणाभावात् " । अर्थात् इस सृष्टि की उत्पत्ति का कोई निश्चित् एक समय नहीं है । ऐसा कोई समय ही न था जब यह अर्धसृष्टि थी ही नहीं । इसमें न थी कहने में कोई प्रमाण ही नहीं है । अतः सृष्टि का कर्ता भी नहीं है और इसकी न आदि है न इसका अंत है । यह अनादि - अनंत है जैमिनी सूत्र के प्रथम अध्याय के प्रथमपद के पाँचवे अधिकार की व्याख्या करते हुए श्री पार्थसारथि मिश्र शास्त्र दीपिका में लिखते हैं कि 'सृष्टि जगत की आदि में मात्र एक आत्मा का ही अस्तित्व था' वह आत्मा ही स्वेच्छा से उसी प्रकार आकाशादि विस्तार रूप में परिणत होता गया जिस प्रकार बीज ही वृक्ष में परिणत होता है । अविद्या के उपादान कारण वाले स्वप्न प्रपंचकी भाँति महादादि प्रपंचमय यह सृष्टि
है ।
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सातवी सदी में हुए शंकराचार्यजी केवलाद्वैतवाद को स्वीकार करते हैं । वे कहते हैं कि आत्मा एक है । जगत की उत्पत्ति का कारण ब्रह्म है । इस जगत रचना अचिन्त्य शक्तिशाली परमेश्वर तथा माया से इन्द्रजाल की तरह बनती है । जीवों को उनके दुष्कृत्यों के फल भोगने पड़ते हैं और अन्त में जगत का अंत - प्रलय होता है ।
ब्रह्मसूत्र १ - ४-३ के भाष्य में उल्लेख है कि संसार में जो पशु-पक्षी आदि
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