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सूक्ष्म अवयव हैं। कर्म भाव से उसका आश्रय करते हैं, इसीलिये लोग ब्रह्मा की मूर्ति को ही शरीर कहते हैं । (१-१८) उस ब्रह्मा ने अपने अपने कर्मो से युक्त पंच महाभूत आकाशादि सूक्ष्म अवयवों के साथ मन की सृष्टि की ।
(१-१६) फिर विनाशरहित उस ब्रह्मा से महाशक्ति युक्त सात पुरुषों की सूक्ष्म मूर्ति के अंशो से विनाशसील यह संसार उत्पन्न हुआ ।
(१-२१) उस हिरण्यगर्भ रुपी ब्रह्मा ने वेद में लिखित वाक्यों और शब्दों के अनुसार सब के नाम, कार्य तथा लौकिक व्यवस्था आदि अलग अलग व्यवस्थित रुप से जमाए ।
(१-२२) फिर उस ब्रह्मा ने इन्द्रादि देव, कर्मस्वभाव वाले प्राणी, अप्राणी अर्थात् अजीव रुप पृथ्वी, पत्थर आदि साध्यगण और सनातन यज्ञ की सृष्टि नित्य, ऋग्वेद, यजुर्वेद, और सामवेद को क्रमशः प्रकट किया ।
(१-२४) फिर उस ब्रह्मा ने समय (काल) उसके विभाग, नक्षत्र, ग्रह, नदियाँ, समुद्र, पर्वत, सम-विषम (१ - २५) तप, वाणी, रति, इच्छा और क्रोध की रचना की और प्रजा की सृष्टि करने की इच्छा से ब्रह्मा ने (२६) कार्यों की विवेचना हेतु धर्म और अधर्म की अलग-अलग व्यवस्था की और जीवों को सुख-दुःख से युक्त किया। (२७) ब्रह्मा ने जिसे जिसे जिस जिस कर्म में लगाया वह पुनः पुनः सृजित होकर वही कर्म करने लगा ।
(२८) हिंसा - अहिंसा, मृदु-कठोर, धर्म-अधर्म, सत्य और असत्यादि को सृष्टि की आदि में ही जिसके लिये ब्रह्मा ने बनाए थे वे वे जीव बार बार उसी में अदृष्टवश स्वयं ही करने लगे ।
(३०) जिस प्रकार ६ ऋतुएँ परिवर्तन पाती हूई स्वयं ही लक्षण प्रकट करती हैं, उसी प्रकार जीव भी कर्मों को स्वयं ही प्राप्त करते हैं ।
(३१) लोक - वृद्धि हेतु ब्रह्मा ने मुख, हाथ, छाती और पाँव से क्रमशः ब्राह्मणौ, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों की उत्पत्ति की ।
(३२) उस ब्रह्मा ने स्वदेह को दो भागों में विभाजित करके, आधे भाग से पुरुष को और फिर आधे भाग से स्त्री का निर्माण किया । तत्पश्चात् उसी स्त्री में 'विराट' नामक पुरुष की उत्पत्ति की ।
(३३) उस विराट पुरुष ने तपश्चर्या करके जिस मनु को जन्म दिया वही
मनु पुरुष संसार का जन्मदाता माना गया ।
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