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कहलाता है । परोक्ष रुप से तो श्री कृष्ण ही युद्ध करते थे - लड़ते थे - और मारते थे - परोक्ष रुप से वे ही भीषण संहार कर रहे थे। यह ईश्वर की लीला थी और उन्होंने अर्जुन को मानसिक रुप से तैयार करने के लिये इस प्रकार अपना मुँह फाड़कर माया-स्वरुप दिखाया था । हे अर्जुन ! तुझ पर प्रसन्न होकर तुझे ही इस सृष्टि का , दर्शन करवाया है।
मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं रुपं परं दर्शितमात्मयोगात् । । तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं यन्मे त्वदन्येन न दृष्ट पूर्वम् ॥४७॥
श्री कृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन ! यह तो तुझ पर प्रसन्न होकर मैंने तुझे मेरा तेजस्वी रुप आत्मयोग से दिखाया है । ऐसा विश्व - दर्शन जो मैने तुझे करवाया है उस मे आदि - मध्य - और अन्त रहित सृष्टि तुझे दिखाई है । ऐसा रुप आज से पूर्व तेरे सिवाय मैंने ओर किसी को भी नहीं दिखाया । यह तो एक मात्र तुझे ही दिखाया है । अरे ! यह रुप - दर्शन तो वेद पढ़ने से भी नहीं होता, यज्ञ - याग - होम - हवन करने से भी नहीं होता, दान क्रिया या तप से भी यह शक्य नहीं है। यह तो मात्र तुझे ही मैंने दिखाया है । ऐसे रुप - स्वरुप को देखने के लिये देवतागण भी सदा लालायित रहते हैं फिर भी यह रुप मात्र तुझे ही दिखाया है । इस प्रकार बार बार विविध वचनों से अर्जुन को प्ररित करके और जगाकर श्री कृष्ण ने अर्जुन के पास महाभारत का भीषण युद्ध करवाया ।
भगवदगीता के 'विश्वरुप दर्शन योग' नामक ११ वे अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को सृष्टि का दर्शन करवाते हैं - उसका यहाँ वर्णन किया है । सृष्टि के रचयिता ईश्वर है और ८ वे अध्याय में भी श्री कृष्ण ने कहा कि -
प्रकृति स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ।।९॥
विचित्र परिणाम वाली जो मेरी स्वयं की है, मुझ पर ही आश्रित है, मेरे ही वश में है, उसे पुनः पुनः विसर्जित भी करता हूँ । जीव समुदाय जो देव - मनुष्य - तिर्यंच और स्थावरात्मक चारों प्रकार की सृष्टि है उस में ही मात्र क्रीडा - लीला रुपमें रचता हूँ बनाता हूँ और प्रलय करके उसका विसर्जन भी मैं ही करता हूँ । यह मेरी मोहिनी रुप है । बार बार समय समय पर मैं इसका सर्जन भी करता हूँ। इसमें प्रकृति का स्वभाव होता है - और मेरी लीला - क्रीडा के लिये भी मैं इस सृष्टि की रचना करता हूँ और इसे समाप्त भी करता हूँ । कल्पक्षये पुनस्तानि
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