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को नास्तिक, अंधश्रद्धालु और मिथ्यात्वी कहकर उन्हें मधुर गाली देकर बहिष्कृत किया जाए - यह कैसा न्याय ?
भगवद् गीता में सृष्टि दर्शन :
हिन्दू धर्म का प्रसिद्ध धर्मग्रंथ 'भगवद्गीता' किसी से छिपा नहीं है। यह एक विशालकाय ग्रंथ है । कई बार 'भागवद् सप्ताह' चलता है । उस कथा में भगवद्गीता का वाचन होता है । इस भगवद्गीता ग्रंथ के 'विश्वरुपदर्शनयोग' नामक ११वे अध्याय में श्री कृष्ण अर्जुन को योग विश्व के रुप का दर्शन करवाते हैं उसका वर्णन है । अर्जुन स्वयं विश्व दर्शन करने की अपनी इच्छा प्रकट करते हुए निवेदन करते हैं -
एवमेतद्यथऽऽत्थ त्वमात्मानं परमेश्वर । . दृष्टुमिच्छामि ते रुपमैश्वर पुरुषोत्तम ॥३॥ मन्यसे यदि तच्छक्यं मया दृष्टुमिति प्रभो ।
योगेश्वर ! ततो मे त्वं दर्शयाऽऽत्मानमव्ययम् ॥४॥
हे परमेश्वर ! मैं आपका रुप और ऐश्वर्य देखने की इच्छा रखता हूँ । हे प्रभो! हे योगेश्वर ! यदि शक्य हो तो वह मुझे दिखाओ । इसके उत्तर में श्री कृष्ण कहते है कि -
पश्य मे पार्थ ! रुपाणि शतशोऽथ सहस्रशः । ' नानाविधानि दिव्यानि नानावर्ण कतीनि च ।।५।। पश्यादित्यान्वसून रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याऽऽश्चर्याणि भारत ! ॥६॥
हे पार्थ अर्जुन ! देखो मेरा सर्वाश्रयीरुप सो रुपो में, हजार रुपों में, अनेक रुपों में, अनेक प्रकार का रुप, दिव्य रुप, भाँती भाँती के रुप रंगादि का रुप देखो १२ सूर्य - २ वसु, ११ रुद्र, अश्विनी, वायु आदिको देखो और इस जगत में जो प्रत्यक्ष दिखाई देता है, शास्त्र से दिखाई देता है, पूर्व में कभी भी न देखे हों ऐसे अदृष्ट
और सभी आश्चर्यकारी सर्व लोक और सर्व वस्तुओं को और विचित्रताओं को तू मेरे में देख । इतना कहकर योगेश्वर अर्जुन को कहते हैं कि -
न तु मां शक्यसे द्रष्टुमने नैव स्वचक्षुषा । दिव्यं ददामी ते चक्षुःपश्य मे योगमैश्वरम् ॥२॥
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