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और ज्ञान में शंका होती है या नहीं? क्या ईश्वर में आत्म विश्वास नहीं है अतः वह वेद की पोथिओं में देख-देखकर सृष्टि बनाता है ? यदि वेद-पोथियों में देख देखकर ही ईश्वर सृष्टि बनाता है तो फिर वह ईश्वर सर्वज्ञ कैसे सिद्ध हो सकता है ? उसकी सर्वज्ञता में शंका होगी या नहीं ? यदि वह सर्वज्ञ न हो तो फिर उसे अल्पज्ञ मानना पड़े । यदि उसे अल्पज्ञ मानें तो सैकडों विषय ऐसे रह जाएँ जो ईश्वर जानता ही न हो, तो फिर वह वैसे पदार्थ कैसे बना पाए ? और यदि अल्पज्ञ की बनाई हुई यह सृष्टि माननी ही हो तो फिर ईश्वर की ही बनाई हुई क्यों मानें ? मानव भी अल्पज्ञ ही है । मानव द्वारा ही निर्मित सृष्टि को हम क्यों न मानें ? मानव दृष्टिगोचर तो है? ईश्वर दृष्टिगोचर भी नहीं और दूसरी ओर सर्वज्ञ ईश्वर द्वारा रचित सृष्टि माननी हो तो फिर सृष्टि के सैंकडों विषयों में विपरीतता, विचित्रता अथवा विषमता क्यों रह गई ? सागर में अगाध पानी है पर उसे खारा क्यों बनाया ? ऐसा खारा पानी जगत के जीवों के पीने के उपयोग में कैसे आ सकता है ? गुलाब के पुष्प बनाए तो उन्हे काँटों में क्यों खिलाए ? अनेक वनस्पतियों को भी कँटीली बनायी है - पर क्यों ? यदि ईश्वर दयालु है - कृपालु है, करुणावंत है तो फिर उसने नरक और नारकी जीवों का निर्माण क्यों किया ? कारागृह दंड और अपराध के क्षेत्र बनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी ? इस प्रकार परस्पर विरोधी भाव और विपरीतता दृष्टिगोचर होते हैं - ऐसे पदार्थों को बनाने की क्या आवश्यकता पड़ी? क्या किसी समर्थ द्वारा निर्मित पृथ्वी में कोई त्रुटि बता सकता हैं ? यदि सर्वज्ञ के कार्य में अल्पज्ञ सामान्य मानव त्रुटि बताए तो फिर क्या समझा जाए ? सर्वज्ञ ईश्वर के गुणों की पुष्टि हो जाती, परन्तु जो गुण ईश्वर में बताए जा रहे हैं, उनसे विपरीत सृष्टि बताई जा रही है तो क्या समझा जाए ? स्वाभाविक है कि इंसान की बुद्धि ऐसे सैंकड़ो प्रश्नों की झड़ी लगाए ? ऐसे ही सैंकड़ो प्रश्न सर्वथा निराधार तो नहीं । एक व्यक्ति के नहीं बल्कि लाखों लोगों के ऐसे प्रश्न हैं और होते हैं। जगत को आगे पूछते हैं परन्तु प्रश्नकर्ता को पूर्ण उत्तर मिलते नहीं, उत्तर दिये ही नहीं जाते अतः मन को संतोष नहीं होता । दूसरी ओर ईश्वर और सृष्टि दोनों को मानव कल्पना शक्ति के बाह्य विषय बना दिये गए हैं और दोनों को अदृश्य कह दिया । कल्पनागम्य भी नहीं रहने दिया अतः मानव अनंत वर्षों तक भी द्विधा में संशय में ही फँसा रहे। फिर श्रद्धा रखने का दबाव डाला जाए और ऐसे बुद्धिगम्य न होने पर भी इन पर श्रद्धा रखने की बात कही जाए और फिर श्रद्धा न रखनेवालों को, न मानने वालों
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