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________________ देखने पर तथा वहाँ की प्राकृतिक विचित्रताएँ देखने पर मननिश्चित् रुप से आश्चर्यचकित हो जाता है और अहा-अहा- कहने के सिवाय हमारे पास कुछ भी नहीं बचता है । अंत में ईश्वर का आश्रय : इस प्रकार चारों ओर की सृष्टि देखने के पश्चात् और इसके संबंध में हजारों प्रकार की अटकलें लगाने के बाद मस्तिष्क निष्क्रिय सा बन जाता है और बहुत मंथन करने के बाद निरुत्तर बना हुआ मानव मन और मस्तिष्क तथा कल्पना के अश्व भी जब अंत में थक गए तब मानव कल्पना ने ईश्वर को ढूँढ निकालने की विवशता दिखाई । यह मन की एक निर्बलता है कि मानव जहाँ घुटने टेककर शरणागति स्विकार कर लेता है वहाँ वह स्वयं ही अपनी बुद्धि के द्वार बँद कर बैठता है और सच्ची बात लगती है कि वर्षों से और सदिओं से विचार करते करते थक चुके मानव को एक बात तो लगती है कि - यह तो अपनी बुद्धि से बाहर की बात लगती है, यहाँ बुद्धि काम ही नहीं कर सकती । कल्पनाओं के घोड़ोंको बुद्धि की लगाम में बाँधकर दौड़ाते भी है परन्तु मस्तिष्क का दहीं होने पर भी यदि मानव को निरुत्तर ही रहना पड़ता हो वहाँ मानव करे भी तो क्या करे ? किसी को भी श्रेय देकर संतोष न करे तो करे भी क्या ? ऐसी गजब की सृष्टि - यह सब देखने के पश्चात् मुँह में से यही उद्गार निकलें कि यह सब ऊपरवाले का कार्य होगा । यह ऊपरवाला कौन है ? कैसा है ? हजार हाथों वाला है या हजार मुखवाला है ? कुछ भी पता नहीं चलता है । वृद्ध है या युवक ? रुप रंग में गोरा है या श्याम है ? सर्वशक्तिमान स्वयं अकेला ही है या उसकी सेना है, उसके अधीनस्थ कार्यकर्ताओं की विशाल संख्या है जिन्हे आज्ञा देकर जहाँ तहाँ सब निर्माण करवाता रहता है ? क्या यह ऊपरवाला सशरीरी है या अशरीरी है ? इच्छानुसार कार्य करता है या अनिच्छापूर्वक कार्य करता है ? सुव्यवस्थित आयोजन पूर्वक कार्य करता है या सब कुछ अव्यवस्थित ही चल रहा है ? क्या यह कोई जादूगर जैसा है या इन्द्रजालिक है ? क्या यह मंत्र शक्ति से चुटकी बजाने जितने समय में ही ऐसी विशालसृष्टि की रचना कर डालता है या फिर विभागवार शनैः शनैः विचारपूर्वक सुंदर आयोजन के अनुसार व्यवस्थित कार्य करता है ? इससे भी किसी प्रकार की भूल होती है या नहीं ? क्या सारे समुद्र का पानी खारा हो गया या जान बुझकर 135
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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