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________________ क्या कार्य करता है । फिर ईश्वर को क्या करना रहा ? अतः कुछ भी कार्य न मिले तो ईश्वर के लिये सृष्टि की रचना करने का कार्य उन सभी धर्मों ने मान लिया है, क्यों कि सृष्टि की रचना के सिवाय ईश्वर के करने योग्य कार्य उसकी मान-मर्यादा के अनुरुप अन्य कोई रहता ही नहीं है , दिखता ही नहीं है, अतः ईश्वर के जिम्मे यह कार्य डाल दिया गया है । इस प्रकार अन्योन्य दोनो अकल्पनीय, अस्पष्ट और अप्रत्यक्ष कार्यों के बीच जन्य - जनक भाव बिठाकर दोनों तत्वों को एक दुसरे के साथ जोड़ दिया गया है । ईश्वर के बिना सृष्टि नहीं और सृष्टि रचना का कार्य किये बिना ईश्वर का अस्तित्व नहीं - क्या यह बात उचित है - न्यायसंगत है ? इस प्रकार तर्क का स्वरुप बियकर विचार करें कि दोनों ही पक्षो में से कौन सा पक्ष कहाँ तक न्यायोचित है ? 'ईश्वर सत्वे सृष्टि सत्त्वं ‘वा सृष्टि सत्त्वे ईश्वर सत्त्वं' ईश्वर हो तो सृष्टि होती है या सृष्टि हो तो ईश्वर होता है ? इसके उत्तर में दोनों को एक दूसरे का पूरक बना दिया है । दोनों के साथ जोड़ दिया है; परन्तु सृष्टि की उत्पत्ति अथवा रचना अथवा निर्माणकर्ता ईश्वर को न माननेवाला जैन दर्शन दोनों को एक दूसरे का कारण स्वरुप नहीं मानता है । यह तर्क तो ऐसा है जैसे सूर्य हो तो रात्रि संभव है या रात्रि हो तो सूर्य संभव है ? जिस प्रकार सूर्य के साथ रात्रि का कुछ भी लेना-देना नहीं है, उसी प्रकार रात्रि का भी सूर्य के साथ कोई संबंध नहीं है । ठीक इसी प्रकार ईश्वर का सृष्टि की उत्पत्ति से कोई संबंध नहीं है और न सृष्टि का भी ईश्वर के साथ कुछ भी लेन-देन है; फिर भी अन्य मतवादी दोनों के बीच कार्य-कारण भाव संबंध मानते हैं और ईश्वर को सृष्टि का कारण मानकर चलते हैं । एक ही सिक्के के दो पहलुओं की भाँती ईश्वर और सृष्टि को जोड़ दिया गया है । सृष्टि के संबंध में विचारणा : जगत के सर्व सामान्य लोगों को निश्चित् रुप से यह सृष्टि देखने पर कल्पना खड़ी होती है कि यह सब किसने बनाया ? कब बनाया ? कैसे बनाया ? कितनों ने मिलकर बनाया ? क्या किया होगा ? किस में से बनाया होगा ? आदि सैंकड़ो प्रश्नों का उपस्थित होना स्वाभाविक है । समय संबंधी प्रश्नों में ऐसे विचार आते होंगे कि यह सृष्टि कब बनी ? कितने वर्ष हुए ? बनने में कितने वर्ष लगे? क्या जादू या चमत्कार की तरह एक चुटकी बजाने के साथ ही इस सृष्टि का निर्माण 133
SR No.002485
Book TitleNamaskar Mahamantra Ka Anuprekshatmak Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherMahavir Research Foundation
Publication Year1998
Total Pages480
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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