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में सारभूत तत्व यदि कोई है, तो वह यह नवकार मंत्र है और अंत में १४ गुणस्थानों में सारभूत भी कोई हो तो वह नवकार महामंत्र है । इस प्रकार १४ संख्यावाची तीनों ही विवक्षा की दृष्टि से नवकार सबका सार है सारांश है - सारभूत है ।
नवकार का सार - 'नमो अरिहंताणं'
नवकार महामंत्र चौदह पूर्वो का, चौदह राजलोक का तथा चौदह गुण स्थानों का - सभी का सार है - सारभूत है, परन्तु नवकार के सार का क्या ? नवकार अन्य का सार है तो नवकार का सार इसका प्रथम पद 'नमो अरिहताणं' है, जिसका अर्थ है नमस्कार हो अरिहंतो को । इस प्रथम पद को ही सार क्यों कहा गया है ? इसका कारण यही है कि अन्य किसी भी पद पर नवकार या जगत का जितना आधार नहीं है उतना आधार नवकार महामंत्र के प्रथम अरिहंत पद पर है । दूसरे कारण में यह कहा जा सकता है कि अरिहंत नवकार के केन्द्र स्थान में है । अरिहंत पद पर ही अन्य सभी पदों का आधार है । अरिहंत पद के आधार पर ही अन्य सभी पद आश्रित हैं, अतः केन्द्र में रहे हुए अरिहंत पद पर ही सबका आधार है । धर्म की आराधना भी अरिहंत को केन्द्र में रखकर ही की जाती है ।
___ अरिहंत ही भगवान है । परम ईश्वर - परमेश्वर हैं परमात्मा हैं, तीर्थंकर हैं, वीतराग हैं, जिन जिनेश्वर - जिनेन्द्र हैं । इस प्रकार भगवानवाची शब्द अनेक हैं । जगत के अन्य धर्मो में भगवानवाची शब्दो में भगवान, ईश ईश्वर परमेश्वर मालिक
God और Father आदि शब्द प्रचलित है । अन्य धर्मो में हमारे अरिहंत वीतराग, जिन, जिनेश्वर आदि शब्दों का प्रयोग नही हुआ है और इसी प्रकार जैन धर्म में भी सर्वत्र भगवान शब्द अथवा ईश्वरादि शब्द भी अधिक प्रचलित नहीं हैं । जैनों ने पूर्व से ही अरिहंत वीतराग, तीर्थंकर शब्दों को ही भगवान के अर्थ में अधिक प्रचलित रखा है । इन शब्दों का ही बार बार प्रयोग किया है । इन शब्दों की ही परम्परा मिलती है अधिक प्रचलन इन शब्दों का ही है । नवकार में भी भगवान या ईश्वर शब्द का प्रयोग नहीं किया । इसी प्रकार आगे के नमुत्थुणं लोगस्स आदि अनेक सूत्रो-स्तोत्रों में सर्वत्र अरिहंत - वीतराग तीर्थंकर शब्दों का ही प्रयोग प्रायः अधिक दिखाई पड़ेगा, परन्तु ईश्वर भगवानादि शब्दों का प्रयोग नहिवंत अत्यन्त अल्प मात्रा में मिलेगा ।
इसका कारण यह है कि 'भगवान' शब्द का एक नहीं बल्कि अलग अलग अनेक अर्थो में प्रयोग होता है । ईश्वर शब्द का रुढ अर्थ जगत का कर्ता - सृष्टि
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