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इस प्रकार सूत्र और अर्थ का ऐसा स्वरुप होता है ।
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प्रथम पद में लोक का अर्थ समग्र लोक होगा जबकि द्वितीय पद में दो प्रकार से अर्थ होगा- समग्र लोक में तथा समस्त लोक के अग्र भाग पर रहे हुए सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो ।' सिद्धस्तव सूत्र', में पाठ दिया है - 'लोअगामुवगयाणं नमो सया सव्व सिद्धाणं' । लोक के अग्रभाग में रहे हुए सर्व सिद्ध भगवंतो को सदा नमस्कार हो । यहाँ लोक शब्द को लोक के अग्रभाग का वाची बताया है । बात भी सही है। पहले समग्र लोक को पहचाना होगा तभी लोकाग्र भाग को पहचान सकेंगे। उसके बिना यह लोक का अग्र भाग है, अन्तिम छोर है - यह बात कैसे समझ में आएगी? और नवकार महामंत्र के शेष तीन पद में लोए शब्द समस्त चौदह राजलोक - ऐसा गौण अर्थ हो जाएगा - दूसरी अपेक्षा से हो जाएगा, जब कि प्रमुख रुप से लोक अर्थात् ढाई द्वीप का लोक ऐसा अर्थ हो सकेगा । ढाई द्वीप परिमाण के लोकक्षेत्र में रहे हुए सर्व आचार्य, उपाध्याय और साधु महाराज को नमस्कार हो । अपेक्षा बदल कर गौण विवक्षा से, निक्षेपों को जोड़ने की सहायता से द्रव्य से क्षेत्र से, काल से और भाव से - इस प्रकार चारों ही अपेक्षाओं से तीनों ही मुरुपद पर आसीन आचार्य, उपाध्याय और साधु भगवंत द्रव्य से उनके जीव रुप में, काल से - भूत, वर्तमान और भविष्यकाल में जो जो साधु थे हैं और होंगे वे तथा क्षेत्र से जिस जिस क्षेत्र में रहे हुए हों उन्हें नमस्कार हो ।
इस प्रकार पूर्वानुवृत्ति और पश्चानुवृत्ति के नियमों का विचार करके 'लोए ' और 'सव्व' शब्द का अर्थ बिठाने का भाव रखा गया है । अतः 'लोए' और 'सव्व' शब्द को प्रथम पद में न रखकर अन्तिम पंचम पद में रखा है और फिर भी सभी पाँचो ही पदों में जोड़े जा सकते हैं । पश्चानुवृत्ति समझकर लिये गए हैं। जिस प्रकार सिद्ध हेम व्याकरणादि में अष्टाध्यायी के अंदर सूत्रों में आने वाले नियमों को अनुवृत्ति से अथवा इस अनुवृत्ति तक इस प्रकार दोनों ही तरह से सूचित किया है, उसी के अनुसार यहाँ समझा जाए । 'लोए' और 'सव्व' शब्द पंचम पद में रखने पर भी उन्हें सभी पदों के साथ जोड़कर अर्थ की विचारणा की जा सकती है । विवक्षा जहाँ जिस रीति से बैठती हो, वैसे ही वहाँ बिठानी है ।
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तीन प्रकार से १४ की विवक्षा :
श्री नमस्कार महामंत्र की गणितानुयोग की दृष्टि से विचारणा करें तो
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