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'सृष्टिस्वरुप और ईश्वरवाद'
नमस्करणीय, वंदनीय, पूजनीय, आदरणीय, प्रातः स्मरणीय, महामंत्र के अधिष्ठाता पंच परमेष्ठि भगवंतों के चरण कमल में अनंतानंत नमस्कार करते हुए
ताव न जायइ चित्तेण, चिंतियं पत्थियं च वायाए । काएण समाउत्तं जाव न सारिओ नमुक्कारो ॥
मन - चित्त से चिंतित काम, वचनयोग भाषा से प्रार्थित काम और काया शरीर से आरंभ किया हुआ कार्य तब तक सिध्द नहीं होता, जब तक पंच परमेष्ठि मंगलस्वरुप नमस्कार महामंत्र का स्मरण नहीं किया जाता।
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श्री नवकार का अस्तित्व इसकी व्यापकता चौदह राजलोक के समस्त ब्रह्मांड में प्रसरित है । ऊर्ध्व - अधो और तिर्यक् लोक - ऐसे त्रिलोक से व्याप्त जो चौदह राजलोक परिणाम का समस्त ब्रह्मांड है उसमें नवकार सर्वत्र व्याप्त है । नवकार महामंत्र के पाँचवे पद में 'लोए' और 'सव्व' शब्द प्रयुक्त है । 'लोए' शब्द यहाँ भौगोलिक और ब्रह्मांड की स्थिति का सूचक है । इन दोनों को मात्र पाँचवे पद में ही रखा है । यहाँ 'लोए' शब्द से लिया जाता लोक शब्द साधु की दृष्टि से समझने का है । अर्थात् जितने क्षेत्र में साधुगण स्थित है उतने ही लोक को 'लोए' शब्द सूचित करता है । परन्तु 'लोए' और 'सव्व' दोनों शब्दों को पाँचो ही पदों में स्वतंत्र रूप से अलग अलग रखकर अर्थ करें तो वह परमेष्ठि का 'लोक'
आ जाएगा। ये पद रखने पर पद का स्वरुप इस प्रकार होगा :
(१) नमो लोए सव्व अरिहंताणं ||१ || (२) नमो लोए सव्व सिद्धाणं ॥२॥ (३) नमो लोए सव्व आयरियाणं || ३ ||
(४) नमो लोए सव्व उवज्झायाणं ||४|| (५) नमो लोए सव्व साहूणं ||५||
अर्थ - (१) लोक में रहे हुए सभी अरिहंत भगवंतों को नमस्कर हो ।
(२) लोक में रहे हुए - लोकाग्र पर रहे हुए सभी सिद्ध भगवंतों को नमस्कार हो ।
(३) लोक में रहे हुए सभी आचार्य भगवंतो को नमस्कार हो ।
(४) लोक में रहे हुए सभी उपाध्यायजी महाराजाओंको नमस्कार हो ।
(५) लोक में रहे हुए सभी साधु भगवंतों को नमस्कार हो ।
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